प्रातःकाल का दृश्य
Pratahkal ka Drishya
भगवान सूर्य अपने सोने के रथ पर सवार होकर निकले। रात्रि का अन्धकार मिट गया था। सूर्य की सुनहरी किरणें चारों तरफ बिखर गईं। पक्षी अपने-अपने घोसलों में मधुर स्वर कर रहे थे। मद-मद ठण्डी हवा चलने लगी थी। मानों रात सोकर वह वापिस लौटी हो। पंखुड़ियों ने भी अपने मुंह खोल दिए ते। इस के लालची भंवरे भी मंडरा रहे थे। हरी-हरी घास पर पड़ी ओस की बूंदे मानो मोतियों के समान चमक रही थी। उधान फूलों की सुगन्ध से भरे पड़े थे। सूर्य की किरणें वृक्षों और पहाड़ों की चोटियों को छूहती हुई अद्धभुत शोभा फैला रही थीं। काफी पुरुष और स्त्रियां अपने-अपने घरों से सैर के लिए निकल पड़े थे। कुछ युवक और युवतियां उधान में व्यायाम कर रहे थे। किसान अपने पशुओं के साथ खेतों में जा रहे थे। पक्षी चहचहा रहे थे। सवत्र आशा की नई किरणें फैलने लगी। सब ओर ताजगी और उल्लास का वातावरण था। मेरा मन भी उत्साह से भरा था। सड़कों पर अखबार वाले साइकिल की घंटीयां बजाते दिखाई देने लगे। दूर-दूर गाँव से सब्जी-लदी बैलगाड़ियां और दूध लदे साइकिल और गाड़ियां नगर में प्रवेश करने लगे। गुरुद्वारों से कीर्तन की ध्वनि सुनाई दे रही थी। मन्दिरों में भी भजनों के स्वर सुनाई देने लगे। दूर कपड़ा मिल ने 7 बजे का भोंपू बजाया और मजदूर अपने काम को निकल पड़े। निश्चय ही यह एक नए दिन का आरम्भ है।