परोपकार
Paropkar
4 Hindi Essay on “Paropkar” Charity
निबंध नंबर :- 01
“परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्” महर्षि व्यास ने अट्ठारह पुराणों में इस बात को स्पष्ट किया है कि स्वार्थ और परमार्थ मानव मन की दो प्रवृत्तियाँ हैं। एक को अपनाने से इंसान पुण्य प्राप्त करता है और दूसरे को अपनाने से व्यक्ति पाप एकत्र करता है। हम लोग अधिकांश काम अपने लिए करते हैं। ‘पर’ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करना ही सच्ची मानवता है। यही धर्म है, यही पुण्य है, यही परोपकार है। प्रकृति हमें परोपकार का संदेश देती है।नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीतीं, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाता, बादल पृथ्वी से कुछ नहीं माँगते बल्कि अपनी अमृत वर्षा से उसे शस्य श्यामला बना जाते हैं। हमारी संस्कृति का मूल आधार त्याग और बलिदान है। दधीचि का अस्थिदान, रंतिदेव का अन्नदान, शिवि का मांसदान इसके अनुपम उदाहरण हैं। मानव जीवन का उद्देश्य धर्म-पालन द्वारा पुण्य अर्जित करते हुए मोक्ष प्राप्त करना है।
मनुज दुग्ध से दनुज रुधिर से अमर सुधा से जीते हैं,
किंतु हलाहल भवसागर का शंकर ही पीते हैं।
मन, कर्म एवं वचनों से दूसरों की भलाई करना ‘परोपकार’ कहलाता है। परोपकारी व्यक्ति दुखियों के प्रति उदार, निर्बलों के रक्षक तथा जन-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होते हैं। वे ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ की भावना से प्रेरित होकर कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होते हैं। परोपकार की भावना ही समाज को मनुष्यता एवं पवित्रता का। आचरण करने के लिए प्रेरित करती है। मनुष्य स्वार्थ त्यागकर उदारवादी दृष्टिकोण अपनाता है। वास्तव में परोपकारी व्यक्ति ही मनुष्य कहलाने का अधिकारी है। गुप्त जी ने भी कहा है-‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।” भगवान श्री राम, श्री कृष्ण, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, महर्षि दधीचि, राजा शिवि, महात्मा गांधी जैसे परोपकारी एवं त्यागी पुरुषों ने अपना संपूर्ण जीवन परोपकार के लिए ही उत्सर्ग कर दिया। वर्तमान युग में परोपकार का विशेष महत्त्व है। आज का मनुष्य अधिक स्वार्थी हो गया है एवं संकीर्णताओं से घिर गया है। संकीर्ण विचारों एवं निहित स्वार्थों के कारण ही ईष्र्या, द्वेष, वैर आदि दुष्प्रवृत्तियों का जन्म होता है और वैमनस्य बढ़ता है। इसी कारण आज चारों ओर अविश्वास और युद्ध का-सा वातावरण बना हुआ है। परोपकार से मनुष्य में त्याग एवं बलिदान की भावना का विकास होता है। अतः परोपकार से ही विश्व-कल्याण संभव है।
निबंध नंबर :- 02
परोपकार
Paropkar
मानव एक सामाजिक प्राणी है। परस्पर सहयोग ही सामाजिक जीवन का आधार है। पारिस्परिक सहयो बिना समाज का कार्य सुचारू रूप स नहीं चल सकता। इसीलिए व्यक्ति को चाहिए कि मन, कर्म, वचन और । से दूसरों का हित करने का प्रयास करें। तुलसीदास जी ने कहा है- ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई’। प्रकृति कार । कण परोपकार में लगा हुआ है। नदी अपना पानी स्वयं नहीं पीती- दूसरों की प्यास बुझाती है। वृक्ष अपने फल नहीं खाते- दूसरों के खिलाते हैं। सूर्य स्वयं आग में जलकर दूसरों को प्रकाश देता है। वृक्ष स्वयं, धूप, आंधी करते हैं लेकिन दूसरों का छांव देते हैं। स्वार्थ में लिप्त व्यक्ति पशु के समान होता है। परोपकार के कारण सु को जहर पीना पड़ा। परोपकार के कारण ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया। परोपकार के लिए गाँधी जं गोलियां खानी पड़ी। मदर टरेसा ने तो अपना सारा जीवन ही परोपकार में लगा दिया है। भारतीय संस्कृति में परो को मानव कर्त्तव्य बताया गया है। हमारी संस्कृति ने सबके सुख तथा सबके कल्याण की कामना की जाती है पूरी पृथ्वी को ही एक कुटुम्ब के रूप में माना जाता है। सच्चा मनुष्य वही है जो स्वयं के लिए ही न जीए, : अपने जीवन काम में परोपकार भी करें। जिस देश में परोपकारी मनुष्य होते हैं, वे सदैव उन्नति को प्राप्त कर परोपकार के लिए गाँधी जी को गोलियां खानी पड़ी। मदर टरेसा ने तो अपना सारा जीवन ही परोपकार में लगा है। भारतीय संस्कृति में परोपकार को मानव कर्त्तव्य बताया गया। हमारी संस्कृति ने सबके सुख तथा सबके क की कामना की जाती है तथा पूरी पृथ्वी को ही एक कुटुम्ब के रूप में मानाजाता है। सच्चा मनुष्य वही है जो के लिए ही न जीए, अपितु अपने जीवन काव्य में परोपकार भी करें। जिस देश में परोपकारी मनुष्य होते हैं, वे उन्नति को प्राप्त करता है।
निबंध नंबर :- 03
परोपकार
Paropkar
संसार में परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। अपने संकुचित स्वार्थ से ऊपर उठकर मानव जाति का नि:स्वार्थ उपकार करना मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है। समाज में रहकर उसे अपने कार्यों की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है इसलिए उसे दूसरों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
परोपकार से तात्पर्य है-दूसरों की भलाई करना। जब हम स्वार्थ से प्रेरित होकर कोई कार्य करते हैं तो वह परोपकार नहीं होता। किसी गरीब पर दया करना, भूखे को भोजन देना, बीमार की सेवा करना आदि सभी परोपकार के अंतर्गत आते हैं।
परोपकार की भावना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। मनुष्य ही नहीं, प्रकृति भी परोपकार करती है-वृक्ष फल देते हैं, नदियाँ जल देती हैं और सूर्य प्रकाश एवं ताप देता है। परोपकार मानव का धर्म है। भूखों को अन्न देना, नंगों को वस्त्र देना, प्यासे को पानी पिलाना, रोगियों करना-मनुष्य का परम धर्म है। इस धर्म का पालन करने वाला ही मानव है। संसार में उन्हीं व्यक्तियों का नाम अमर होता है, जो दसों लिए जीते और मरते हैं।
परोपकार से अनेक लाभ हैं। इससे व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण होता है। परोपकार से व्यक्ति को सम्मान और संपदा मिली है। परोपकार करने से आत्मिक शांति मिलती है, हृदय पवित्र हो जाता है और मन की सारी पीड़ा दूर हो जाती है। फिर मनुष्य अपने स्वार्थ के विषय में सोचना छोड़ के दूसरों के हित के विषय में सोचने लगता है। परोपकार से ही विश्व-प्रेम की भावना का उदय होता है और सारा संसार कुटुंब के समान दिखाई देने लगता है।
प्राचीन काल से हमारा देश धर्म-प्रधान रहा है। इस देश का इतिहास परोपकारी, त्यागी और तपस्वी लोगों की पावन गाथा से भरा पड़ा है। महर्षि दधीचि ने परोपकार करते हुए अपने शरीर की हड्डियाँ दान में दे दी थीं। राजा रंतिदेव ने 45 दिन भूखे रहकर भी अपने भोजन का थाल एक याचक को दे दिया था। इसी प्रकार कर्ण और हरिश्चंद्र ने भी परोपकार के लिए अपना सबकुछ दान कर दिया था। ईसा मसीह जन-उद्धार के लिए सूली पर चढ़े थे। सुकरात ने मानव हित के लिए विष का प्याला पिया था। महात्मा गाँधी और अन्य देशभक्तों ने देश की स्वतंत्रता के लिए अनेकों कष्ट झेले थे। इस प्रकार इतिहास का एक-एक पृष्ठ परोपकारी महापुरुषों की महान गाथाओं से भरा पड़ा है।
वास्तव में परोपकार मानव जाति के लिए सुख-शांति प्रदान करता है। यह वह मंत्र है जिससे मनुष्य दूसरों के दुखों को अपना दुःख समझ कर उसे दूर करने के प्रयत्न करता है। हमारा कर्तव्य है कि हम परोपकारी लोगों से प्रेरित होकर अपने जीवन-पथ को प्रशस्त करें।
राष्ट्र कवि की कविता की यह पंक्ति हमें यही संदेश देती है–
“वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।”
निबंध नंबर :- 04
परोपकार
Charity
रूप–रेखा
परोपकार का अर्थ, परोपकार पुण्य और खशी पाने का उपाय है, प्रकृति परोपकार में लगी है, दूसरों की मदद के लिए कष्ट उठाना अच्छा है, परोपकार सबसे बड़ा धर्म है, परोपकार की भावना कम हो रही है।
दूसरों के हित के लिए किया गया स्वार्थ रहित कार्य परोपकार कहलाता है । परोपकार में निजी हित के लिए कोई स्थान नहीं होता है, बल्कि इसके द्वारा दूसरों का कष्ट दूर किया जाता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाज में रहकर उसका कर्त्तव्य बनता है कि वह दु:खी मनुष्यों तथा जीवों की सहायता करे । दीन, दुखी और निर्बल व्यक्तियों की सहायता परोपकार है।
महर्षि व्यास जी ने कहा है कि ‘परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीड़नम् ।’ अर्थात् परोपकार पुण्य है और दूसरों को दुःख देना पाप है । यह कथन पूरी तरह सत्य है क्योंकि परोपकार की बात सभी धर्मों में कही गई है। जिनके हृदय में परोपकार करने की भावना रहती है, वे सज्जन पुरुष कहलाते हैं । सज्जन पुरुषों की विपत्तियाँ अपने-आप नष्ट हो जाती हैं । एक विद्वान हरबर्ट का विचार है कि परोपकार करने की खुशी से दुनिया की सारी खुशियाँ छोटी हैं । सचमुच परोपकार करने से हृदय को वास्तविक खुशी मिलती है।
प्रकृति भी परोपकार में लगी हुई है । सूर्य बिना किसी आशा के हमें प्रकाश और गर्मी देता है । रात के समय चंद्रमा हमें शीतल चाँदनी देता है। वृक्ष जीव-समुदाय के लिए फल प्रदान करते हैं । मिट्टी अनाज देती है। नदियाँ जल भेंट करती हैं । वायु लगातार बहते हुए हमें जीवन देती है । समुद्र अपना जल देकर वर्षा कराता है। इस तरह प्रकृति सदा दूसरों के उपकार में लगी रहती है । बदले में वह कुछ भी नहीं माँगती।
परोपकार में कुछ कष्ट सहना ही पड़ता है । भगवान शंकर ने दूसरों के कल्याण के लिए विष पी लिया था । महर्षि दधीचि ने देवताओं की रक्षा के लिए अपनी हड्डियाँ भेंट कर दी थीं। ईसा मसीह सूली पर चढ़ गए थे। गाँधी जी ने अपने सभी निजी सुखों का त्याग कर दिया था । ये सब उदाहरण बताते हैं कि परोपकार के कार्यों में दु:ख उठाना ही पड़ता है । बदले में परोपकारियों को समाज में सम्मान मिलता है । लोग युगों-युगों तक उन्हें स्मरण करते हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं – “परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।“ अर्थात परोपकार से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है । जब कोई परहित का कार्य करता है तो उसकी आत्मा प्रसन्न होती है । परोपकारी दूसरों की सहानुभूति का पात्र बनता है । परन्तु जो दूसरों को सताने में लगा हुआ है वह नरक की ओर एक और कदम बढ़ा देता है । वह धरती पर एक बोझ बनकर जीता है । लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं । उसे समाज में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता । इसलिए परोपकार को जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य मानकर हमें सदा ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे दूसरों की तकलीफ़ कुछ कम होती हो।
आज के समाज में परोपकार की भावना कम हो गई है । बलवान कमजोरों को सताकर अपने कों श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगा हुआ है । उसे धर्म-अधर्म की चिन्ता नहीं है । धर्म के नाम पर हट्टे-कट्टे लोगों को भिक्षा दी जाती है । भोजन उसे कराया जाता है जिसके पेट भरे होते हैं । गरीब और दुखी जनता के आँसू पोंछने वाला कोई नहीं है । राष्ट्र-हित के नाम पर अपनी जेबें भरने वालों की कोई कमी नहीं है । आधुनिक संस्कृति में परोपकार के लि, बहुत कम स्थान रह गया है । परन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सच्चे मन से देश और समाज की सेवा कर रहे हैं । ऐसे लोग सचमुच महान होते हैं।