नारी शिक्षा
Nari Shiksha
भूमिका- मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसकी उन्नति भी सामाजिक विधान पर ही निर्भर करती है। नारी मनुष्य के साथ आरम्भ से ही सहचरी बन कर आई है। जीवन के उपवन में जो फूल खिलते हैं उनमें सुख का सौरभ नारी ही बिखेरती है। यह केवल परिवारिक जीवन के लिएही सहायक नहीं है अपितु जीवन के हर संघर्ष में नारी ने पुरुष का साथ दिया है। देश के इतिहास से कुछ ऐसे परिवर्तन आए कि नारी का आस्तित्व झूले पर झूलते हुए व्यक्ति के समान हो गया और वहअनेक बन्धनों में जकड़ कर कठपुतली के समान बन कर रह गई।
नारी शिक्षा की आवश्यकता- वास्तव में यह प्रश्न उठाना कि नारी को शिक्षा की क्या आवश्यकता हैअज्ञानता की और ले जाता है। नारी को अनेक रूपों में देखा जाता है। नारी का रूप मां, पत्नी, बहिन के रूप में सामाजिक जीवन में देखा जाता है और इन रूपों में वह विभिन्न प्रकार दायित्वों को निभाती है। मां के रूप में वह केवल जन्म देने वाली ही नहीं है अपितु बचपन में ही वह अपने बच्चे को सही दिशा दे सकती है। बच्चे की पहली पाठशाला घर है। मां ही उसे आरम्भिक ज्ञान देती है। मां ही बच्चे की पहली शिक्षिका है। वहीं उसके जीवन को मोड़ दे सकती है। पत्नी के रूप में वह अपनी गृहस्थीकी रक्षक ही नहीं होती बल्कि उसे सुःख का स्वर्ग भी बनाती है। बहिन के रूप में नारी सदा भाईयों की भलाई की कामना करती रहती है।
प्राचीन काल में नारी शिक्षा- आरम्भ के युग में नारी का सम्मान था। वे पढ़ी-लिखी होती थीं। वे पुरुषों के इशारे पर नहीं नाचती थीं। तभी तो कैकई ने महाराजा दशरथ की युद्ध में रक्षा की, तभी तो विदुला ने अपने सयंम को ऐसा समझाया कि वह युद्ध से भागा हुआ पुनः युद्ध मे चला गया। हमारे पास अनेक स्त्रियों के उदाहरण हैं जिन्होंने अपनी शिक्षा के प्रभाव से समय-समय पर अपने युगों और पतियों को सजग किया। उस समय नारी बहुत शिक्षा पाती थी और उस समय की शिक्षा भी आदर्श होती थी। कहा भी जाता है कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। नारी पूजा का अर्थ उसे सम्मान देना है, उसे शिक्षित बनाना है और जीवन के प्रत्येक पहलू में उसे साथ रखना है।
मध्य युग में मुस्लमान लड़कियों को उठा ले जाते थे। इसलिए उनके लिए पर्दे की प्रथा आरम्भ हो गई और बाल विवाह होने लगे और उस समय पुरुष वर्ग ने नारी का केवल एक कर्त्तय समझा पति की सेवा कर और बच्चों का पालन। स्त्रियां एक ऐसे घेरे में बन्द हो गईं जहाँ से उनका निकलना असम्भव हो गया। मध्यकाल में गुरू नानक देव जी ने नारी के सन्दर्भ में क्रान्तिकारी विचार दिए और समाज में उसे प्रतिष्ठा दी। शिक्षा के अभाव के कारण भारत की मात शक्ति में आत्महीनता की भावना आ गई। विवाह के पश्चात नारी जब ससुराल में तंग होती, सास, ननद और पति द्वारा दुःखी की जाती और सोचती कि शायद वह पढ़ा लिखा है और मैं अनपढ़ हूं तो वह शिक्षा प्राप्त करने के लिए छटपटाती।
आधुनिक युग में नारी शिक्षा- सभी युग एक जैसे नहीं रहते। महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने नारी शिक्षा का नारा लगाया। समय बदला। समाज ने निश्चय कर लिया कि लड़की को इतना पढ़ाया-लिखाया जाए कि ह पत्र लिखने योग्य हो। सारे मुहल्ले में या फिर गाँव में केवल एक ही पढ़ी-लिखी लड़की मिलती। उसका बहुत आदर होता था। धीरे-धीरे धारणा बदली लड़की को दसवीं तक पढ़ाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह दृष्टिकोण बना कि लड़की को बी० ए० बी० टी० तक पढ़ाया जाए। आज स्थिति यह है कि लड़की का पहला गुण पूछा जाता है कि लड़की कितनी पढ़ी-लिखी है। आजकल शिक्षा नारी-जीवन का अनिवार्य अंग बन गई है। नारी शिक्षा दो कारणों से दी जा रही है कि लड़की को अच्छा वर मिले और आर्थिक दृष्टि से आत्म निर्भर बन सके। आज नारी को शिक्षा इसलिए दी जाती है कि वह अपना और अपने परिवार का जीवन सुखी और शान्त बना सके। नारी शिक्षा का यह भी उद्देश्य है कि विपत्ति आने पर वह अपना भार स्वयं उठा सके। आज के युग में नारी शिक्षा, व्यापार, मेडिकल इन्जीनियरिंग, वैज्ञानिक, खेल-कूद, किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है। आज शिक्षा के क्षेत्र में वह पुरुष से कही ज्यादा आगे निकल गई है।
उपसंहार- दो बातें आज की नारी के बारे में कहना भी अनुचित न होगा। स्वतन्त्र भारत की मातृ शक्ति शिक्षिता हो रही है। यह देशवासियों के लिए गौरव की बात है। नारी शिक्षा दिनों-दिन बढ़े, पर वह ऐसी शिक्षा हो जो भारतीय संस्कृति के अनुरूप हो। भारत की नारी आदर्श मां, आदर्श बहिन, आदर्श पुत्री, आदर्श बहिन, आदर्श पुत्री, आदर्श पत्नी बन सके। उसने वह शक्ति हो जो दुष्ट की दृष्टि के चंगुल से उसे बचा सके, न कि चूहे के खटखट करते ही बेहोश हो जाए। वह समय पर फूल जैसी कोमल और पत्थर जैसी कठोर भी हो। तभी हमारी नारी शिक्षा सफल होगी।