नारी और उसका सम्मान
Nari aur Uska Samman
प्रेम, त्याग, धैर्य और सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति नारी आज कितनी शोषित, प्रताडित, अपमानित और उपेक्षित है, यह तो सर्वविदित है। इस समाज में नारियों को दयनीयता और अधोगति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया है। नारियों की इसी दयनीय स्थिति पर क्षोभ और दुःख व्यक्त करते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है- “हाय अबला नारी तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आँखों में पानी।”
नारियों के प्रति उच्च सम्मान एवं श्रद्धा भावना के कारण ही भारतवासी सभ्य, सुसंस्कृत, नैतिक मूल्यों एवं मानवीय उच्चादर्शों से विभूषित थे और उनका चरित्र महान था। वास्तविकता में यहाँ देवताओं का निवास था। भारत विश्वगुरु कहलाता था और भारत की नारियों के प्रति उच्च-सम्मान एवं श्रद्धा की भावना इसके मूल में थी। नारी उच्च मानवीय गुणों का सुरक्षित भण्डार है। नारी का नारीत्व परम सौन्दर्य है और उसका सौन्दर्य अपनी शक्तिरूपी सुरभि से संपूर्ण विश्व को इसका खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा।
आज भारत में नारियों के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा-भावना को भूल कर अपमान तथा शोषण किया जा रहा है। उनके प्रति सर्वत्र घोर उपेक्षा तथा प्रताड़ना का भाव दिखायी देता है। पुरुषों के उत्कर्ष एवं उन्नति के लिए, उसे समाज में सम्मानित और प्रतिष्ठित करने के लिए, अपना सर्वस्व लुटा देने वाली नारी का अपने परिवार में, समाज में, कोई सम्माननीय स्थान नहीं है। उन्हें मर्यादित स्वतंत्रता भी प्राप्त नहीं है। उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने का अधिकार तक प्राप्त नहीं हैं। पिंजरों में कैद किसी पक्षी की भांति आम नारियाँ हर तरह से पुरुषों के अधीन हैं। वे पुरुष की दासी और भोग-विलास की सामग्री मात्र बन कर रह गई है। वे पाश्विक शक्ति के अंहकारी पुरुषों के उचित-अनुचित हर इशारे पर नाचने को विवश है। एक चलती-फिरती मूक कठपुतली की तरह उनकी सारी इच्छाएँ आकाक्षाएँ मृतप्राय हो गई है।
नारी की अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और आकाक्षाओं का कोई मोल नहीं है। इसका कभी किसी को पता नहीं चलता। कहीं महिलाएँ मानसिक रूप से स्वतंत्र न हो जाए, इसलिए उनकी सबसे जरूरी और प्रिय आशा को कभी पूर्ण नहीं किया जाता। पाश्विक बल के अंहकारी पुरुषों द्वारा किये गए अन्यायों एवं अत्याचारों को वह सह लेती है। वह अपनी सभ्यता और संस्कृति के लिए स्वयं को अर्पित कर देती है। उनका जीवन बहुत ही अधूरा, निर्बल, हताश और दयनीय हो जाता है। बाह्य रूप से वे अपने पति, भाई और पिता के सम्मान की रक्षा हेतु स्वाहा हो जाती है। लेकिन उनके मन के भीतर जो तीव्र तूफान चल रहा होता है उसका किसी को पता नहीं होता। स्त्रियों को यह अभिनय जीवन भर निभाना पड़ता है। जबकि पुरुष समाज इसे अपनी सबसे बड़ी सफलता मानता है। यह जीवन तो अस्तित्वहीन है, सार हीन है और सबसे बढ़कर सौन्दर्यहीन है। यदि कोई नारी अपने अंदर साहस जुटाकर, अपने ऊपर किए गए अत्याचारों का विरोध करती है, तो वह अमर्यादित, कठोर, हृदयहीन, और विवेकहीन करार दे दी जाती है। कितनी बड़ी सजा है ये कि स्त्री को सिर्फ स्त्री समझा जाता है एक मानव नहीं। जैसे उनका हृदय और उनकी आत्मा भी पुरुषों की देन हो न कि ईश्वर की। स्त्रियों के अन्दर न जाने कितना बड़ा विशाल स्रोत है कलाओं का मगर यह स्रोत पुरुष के सामने सूखता चला जाता है, लेकिन तब भी उसे जरा भी महसूस नहीं होता कि नारी तो हमेशा ही शरीर में मुझसे अधिक निर्बल रहेगी और हमेशा ही मुझे प्रेम करेगी चाहे पति के रूप में, चाहे पुत्र के रूप में चाहे, भाई के रूप में या चाहे पिता के रूप में।
सबसे शर्मनाक स्थिति तो यह है कि आज का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग भी नारियों को अपमानित और प्रताड़ित करने से नहीं चूकता। आधुनिकता का दम भरने वाला यह पुरुष प्रधान समाज आज भी नारियों को घर की दीवारों तक ही सीमित रखना चाहता है। शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति उसने अवश्य दी है क्योंकि यह आज के युग की माँग है। बहुत से पुरुषों ने नारियों को नौकरी करने की भी छूट दी है, लेकिन उसे अपनी इच्छानुसार मर्यादित जीवन जीने की स्वच्छंदता नहीं दी गई है।
कामकाजी महिलाओं का तो दोहरा शोषण हो रहा है। अब उन्हें कमाना और चूल्हा-फूंकना, दोनों काम साथ-साथ करने पड़ते हैं। कामकाजी महिलाओं पर तो विवाह के बाद और भारी भावनात्मक दबाव बढ़ जाता है। एक तरफ उनकी जरूरत, दूसरी तरफ विवाहिता की मर्यादा और तीसरी तरफ बाल-बच्चों के पालन-पोषण की समस्या। इतना सब करने के बाद भी उनको उतना सम्मान और स्थान नहीं मिल पाता, जितना उनको मिलना चाहिए। वरन् यदि उनकी भावात्मकता और भावुकता का समापन हो जाए, तो इसके लिए भी उनको ही दोषी ठहराया जाता है। पुरुषों को अथवा पुरुष वर्ग को नहीं, जिन्होंने उसकी भावुकता को घटाया है।
पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर आज भारतवासी अपने को आधुनिक कहने का दंभ अवश्य भरते हैं, लेकिन यह सिर्फ ऊपरी दिखावा है। भारतवासियों की मानसिकता आज भी संकुचित है। रूढ़ियों, निरर्थक परंपराओं एवं जड़ताओं से ग्रस्त है। आधुनिकता की इस दौड़ में विधवा महिलाओं को कई बार, कई स्थानों में, विवाह के कार्यक्रमों में भाग नहीं लेने दिया जाता। उनकी छाया तक को मनहूस माना जाता है। हमारे समाज में आज भी विधवा स्त्री को हीनता एवं उपेक्षित नजरों से देखा जाता है। इस सब का कारण है समाज, जो रचनात्मक कार्यों के लिए नहीं, पर देश की प्राचीन मान्यताओं और नियमों के अवलंबन के लिए विधवाओं को बाध्य करता है।
समाज में बीमारी की तरह फैलती हुई दहेज प्रथा आज भी कायम है और समय के साथ बढ़ती जा रही है। यह भारत का सबसे दुखद सत्य है। आज दहेज देने और लेने का स्वरूप काफी सभ्य हो गया है, पर इससे दहेज देने और लेने की मंशा में कोई बदलाव नहीं आया। इस कप्रथा के कारण होता जा रहा है। कोई भी दिन ऐसा नहीं होता है, जिसमें ग्रामीण या शहरी | क्षेत्र के किसी घर से नवविवाहिता की अर्थी न उठती हो। या तो उसके ससुराल वाले उसे जला देते हैं या वो माता-पिता और ससुराल की प्रताडनाओं और दबाव में आकर मानसिक रूप से परेशान होकर आत्महत्या कर लेती है। दहेज की मांग करने वाले दानव तो अर्थी भी नहीं उठने देते। नव-विवाहिता को उसके घर पर ही छोड़ दिया जाता है, दहेज की आपूर्ति के पूर्व ससुराल वाले उसकी विदाई भी नहीं करवाते। उसके बाद के चरणों में बहुओं की हत्या जाने लगी और वर्तमान समय में तो बहुओं की हत्या करने के बाद भी इनका कोई सुराग नहीं छोड़ा जाता।
प्राचीन काल से ही यौनाचार को चरित्रहीनता समझने वाला भारत वर्ष आज पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति की तेज आंधी का शिकार होने के कारण, अपने सन्मार्ग से दिग्भ्रमित हो गया है। उसी को अपना ध्येय मानकर उसकी ओर तीव्रगति से उन्मुख हो रहा है। उसका यह पाश्विक आंतक चारों ओर इस तरह फैल गया है कि सड़कों, शिक्षण-संस्थानों, कार्यालयों तथा सार्वजनिक स्थलों पर नारियों की इज्जत, बल्कि कहें कि उसका ‘सर्वस्व’ ही खतरे में है। वे हमेशा अपने आप को असुरक्षित महसूस करती हैं, यहाँ तक कि तथाकथित रक्षक ‘पुलिस’ भी भक्षक बन बैठी हैं। रोजाना ऐसे मामले सामने आते हैं, जिनमें किसी बच्ची या युवती के साथ पुलिसकर्मी द्वारा बलात्कार किया जाता है। आज के हमारे आधुनिक भारत में जिन व्यक्तियों ने बलात्कार जैसा कुकर्म किया, उनमें कई सम्मानित पदों पर आसीन पुरुष थे। इसका कारण यही है कि पुरुष चाहे कितने भी सम्मानित पद पर आसीन क्यों न हो जाए, उसमें पाश्विक और अहंकारी वृत्ति हमेशा रहती है।
नारियों को इस दुर्गति और अत्यंत दयनीय स्थिति तक पहुँचा देने के कारण भारत निरंतर अध:पतन की ओर उन्मुख है। इसकी चारित्रिक पवित्रंता बहुत हद तक नष्ट हो चुकी है। कभी सुदीर्घ अतीत में, उच्चादर्शों और उदात्त मान-मूल्यों से विभूषित भारतीय, आज भ्रष्ट, पतित, व्याभिचारी और नारी सम्मान भावना से विमुख हो गए हैं। उनका चारित्रिक अध:पतन हो गया है। विश्वगुरु कहलाने वाले भारत आज विश्व में अपनी पहचान, अपनी अस्मिता खोता जा रहा है।
यह हमारे लिए अत्यंत गर्व की बात है कि समाज सेवा के क्षेत्र में स्त्रियाँ. परुषों से अधिक सफल हैं। इस प्रकार की सेवाओं की आवश्यकता मुख्य रूप से गाँवों में होती है। जहाँ ‘परिवार नियोजन’ और ‘बाल कल्याण’ जैसे कार्यों को स्त्रियाँ ही ठीक ढंग से निभा सकती हैं। शहरी इलाकों में अनामों बेसहारा विधवाओं और अनाथाश्रम की औरतों को पढ़ाने और देखभाल करने के कार्य भी स्त्रियाँ कर सकती है। वे बेसहारा स्त्रियों को सिलाई, बुनाई, कढाई तथा अन्य हस्तकलाओं में प्रवीण कर अपने पैरों पर खड़ा करने में सहायता प्रदान कर सकती हैं। वे बाढ़, आकाल, भूकंप या अन्य प्राकृतिकआपदाओं से पीड़ित इलाकों मे समाज सेवा कर सकती हैं। बाल कल्याण प्रसूति, पर्दा प्रथा, दहेज, विधवा-विवाह और स्त्री शिक्षा के संबध में स्त्रियों के विचार पुरुषों से अधिक गंभीर हो सकते हैं क्योंकि उन्होंने स्वयं किसी न किसी रूप में उनको झेला होता है।
वर्तमान भारत के निर्माण में स्त्रियों का महत्वपूर्ण योगदान है। राष्ट्रीय विकास में स्त्रियाँ पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। वह दिन दूर नहीं, जब भारतीय नारी पूर्ण रूप से दुनिया की किसी भी नारी के समान अपने आपको प्रखर कर लेगी और प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में सफल हो जाएगी।
भारत ने इन सब बातों को सच कर दिखाने के लिए नारियों के प्रति श्रद्धा और सम्मानपूर्ण व्यवहार नहीं अपनाया और नारियों को दयनीय अवस्था तथा दुर्गति तक पहुँचा दिया है। नारियों को समाज एवं परिवार में सम्मानित स्थान नहीं दिया जाएगा, तो भारत का विश्व में रहा-सहा सम्मान और स्थान भी समाप्त हो जाएगा। वह अध:पतन के रसातल तक पहुँच जाएगा। उसका अस्तित्व और उसकी अपनी पहचान अंधकार में विलीन हो जाएगी। स्त्रियों के महत्व को जानकर ही यूनान के महान दार्शनिक ‘अरस्तु’ ने सत्य ही कहा है- “स्त्रियों की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्भर करती है।”