मेरे जीवन का लक्ष्य
Mere Jeevan ka Lakshya
मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है। वह सदा जीवन में आगे ही आगे बढ़ना चाहता है। चाहे एक सांसारिक मनुष्य हो या संयासी, सभी अपने कर्मों द्वारा जीवन को सार्थक बनाना चाहते हैं। इसी कारण मनुष्य दृढ़निश्चय, लगन व साहस से सदैव अपने कार्य में प्रयासरत रहता है। किन्तु मनुष्य का प्रयास किस दिशा में हो, इसका निर्धारण लक्ष्य करता है। हरिवंशराय बच्चन के अनुसार—
‘पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।
मनुष्य का जीवन एक ऐसी धारा है जिसे लक्ष्य निर्धारण द्वारा उचित दिशा में मोड़ा जा सकता है। लक्ष्यहीन जीवन पशु-तुल्य है। लक्ष्यरहित मनुष्य का जीवन एक चपरहित नौका के समान भवसागर में तूफानों के थपेड़ों से चूर-चूर हो जाता है। ऐसा मनुष्य अपना सम्पूर्ण जीवन केवल खाने-पीने और सोने में ही व्यर्थ गंवा देता है और अंत समय पश्चात्ताप करता है कि अनमोल हीरे के तुल्य मानव जीवन ‘बिना किसी उपलब्धि के ही बीत गया। ऐसे व्यक्ति विद्या, तप, दान, धर्म आदि के बिना पृवी पर भार स्वरूप अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। ऐसे ही मनुष्यों के विषय में संस्कृत आचार्य लिखते हैं–
‘येषां न विद्या न तपो न दानं,
न ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मृत्युलोकें भुवि भारभूताः
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।
अतः मन को नियंत्रण में रखकर, दूरदर्शिता से एक लक्ष्य का निधारण करना चाहिए। लक्ष्य-निर्धारण के
महत्व पर बल देते हुए कयरीदास जी लिखते हैं–
‘मन सागर मनसा लहरि, बड़े बड़े अनेक।
कह कबीर ते ‘वाचिहैं, जिन्हें हृदय विवेक।।’
जिस प्रकार कोई व्यक्ति स्टेशन पर गाड़ी से उतरे और उसे यह ज्ञात हो कि उसे किस मुहल्ले और किस मकान पर पहुंचना है तो वह अपना समय गंवाए। बिना तुरन्त वहाँ पहुंच जाएगा। इसी प्रकार लक्ष्य का चुनाव कर लेने से भी मनुष्य एक निश्चित मार्ग पर चलकर अभीष्ट सिद्धि पा सकेगा। अतः लक्ष्य का चुनाव अत्यावश्यक है।
लक्ष्य का चुनाव करते समय अत्यन्त सावधानी रखनी पड़ती है। इसके लिए मनुष्य को अपनी क्षमता, आर्थिक परिस्थिति, रुचि, संकल्प, समाज द्वारा मान्यता आदि तथ्यों को ध्यान में रखना पड़ता है। कबीर ने कहा है- “तेते पाँव पसारिये, जैती लांबी सौर।’ अत: लक्ष्य का चुनाव करते समय व्यक्ति को ध्यान में रखना । चाहिए कि ऐसा लक्ष्य भी न चुना जाए कि व्यक्ति को उसके लिए बिल्कुल श्रम हीं न करना पड़े। इससे वह अकर्मण्य बन जाए। ऐसा लक्ष्य भी न चुना जाए कि उस तक न पहुंच पाने के कारण व्यक्ति में हीन-भावना घर कर जाए। वास्तव में लक्ष्य ऐसा हो, जो अपने जीवन को सुख-शांति देने के साथ-साथ समाज और राष्ट्र! की उन्नति में भी सहायक हो।
वैसे तो जीवन के लक्ष्य कई हो सकते हैं। कोई डॉक्टर बनना चाहता है, कोई इन्जीनियर, कोई सरकारी कर्मचारी बनने की कामना करता है, तो कोई व्यवसायी बनने की। मैं भी जीवन के एक ऐसे चौराहे पर खड़ा हूँ, जहाँ मुझे एक लक्ष्य निर्धारित करके एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ जाना है। अतः मैंने काफी सोच विचारकर अध्यापक बनने का दृढ़ निश्चय किया है। अध्यापन-कार्य में मानसिक शांति भी है और राष्ट्र-सेवा की । इससे आत्मा की भूख शांत करने के लिए साहित्य का अध्ययन करने का सुअवसर भी मिलेगा और देश के भावी कर्णधारों के भविष्य निर्माण में मेरा सहयोग भी रहेगा। इसलिए मेरी तीव्र इच्छा है कि–
‘बनकर मैं आदर्श अध्यापक,
शिक्षित कर दें सारा देश।
पूरे देश में नाम हो मेरा,
यही मेरा जीवन उद्देश्य।।
अध्ययन में मेरी रुचि बचपन से ही रही है। जब मैं छोटा था, कहानियों के बहुत चाव से पढ़ा करता था। एक बार ‘मास्टर जी’ नामकं कहानी पढ़ने के उपरांत मेरे हृदय में यह इच्छा जागृत हुई–‘काश ! मैं भी कभी इन्हीं मास्टर जी की भाँति निःस्वार्थ भाव से बच्चों के भविष्य-निर्माण में आना योगदान दे पाऊँगा।’ बस, समय बहुत चाव से पहला जागृत हुई‘काश आना योगदान दे पाउँगा ।’ बस, समय के साथ-साथ इच्छा बलवती होती गई। यही मेरा जीवन लक्ष्य बन गया। यद्यपि राष्ट्र-सेवा, यश और धन तो अन्य माध्यमों से भी प्राप्त हो सकते हैं, किन्तु एक आदर्श अध्यापक के सामने ये सभी तुच्छ हैं। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के दोष देखते हुए इसमें कुछ सुधार लाने के उद्देश्य से मेरी अध्यापन की आकांक्षा और तीव्र हो उठी है।
मैं यह भी जानता हूँ कि मात्र लक्ष्य चुन लेने से कभी भी मैं आदर्श अध्यापक नहीं बन सकेंगा। इसके लिए मुझे प्रयत्न करने होंगे। गुरु का गौरवपूर्ण पद पाने के लिए पहले मुझे स्वयं इस योग्य बनना होगा कि गुरु के महान् लक्षण मुझमें उत्पन्न हों। यह सही है कि केवल प्रयत्न भी व्यक्ति के लक्ष्यप्राप्ति में सहायक नहीं होते, भाग्य भी आवश्यक है। क्योंकि कई बार भाग्य मनुष्य को क्या से क्या बना देता है। जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी ने प्रयत्न तो किए थे-वकील बनने के लिए। भाग्य ने बना दिया–राष्ट्रनायक। राजीव गाँधी ने प्रशिक्षण लिया–विमान चालक का और बन गए प्रधानमंत्री तथापि मेरा कर्तव्य है कि मैं लगनपक विद्याध्ययन करूँ, नियामत आहार-विहार व संयम से जीवन निर्वाह करूं ताकि आगे चलकर गुरु द्रोणाचार्य, रामदास, चाणक्य आदि के समान अपने शिष्यों को तमसाच्छन्न मार्ग से हटाकर उनका दिव्य ज्योति से साक्षात्कार करा सकें। तभी और केवल तभी में छात्रों में नैतिक मूल्यों की स्थापना कर पाऊँगा, सामाजिक बुराइयों के प्रति उन्हें सचेत कर सकेंगा व किताबी कीड़ों की अपेक्षा सच्चे नागरिक बना पाऊँगा। यह भी शाश्वत सत्य है कि ‘ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। अतः अभी मेरा कर्तव्य है-संघर्ष के कंटकाकीर्ण मार्ग पर बढ़ते हुए कठोर साधना से ज्ञानार्जन करना। परीक्षाएँ, डिग्रियाँ, प्रमाण-पत्र इस साधना के विभिन्न सोपान हैं।
मैंने अपना लक्ष्य तो चुन लिया और अपने चुनाव पर मुझे संतुष्टि भी है, किन्तु सफल हो पाऊंगा या नहीं-यह अभी भविष्य के गर्भ में है। मेरी परमपिता परमात्मा से यही प्रार्थना है कि मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। जो सपने मैंने संजोए हैं, उन्हें पूरा कर सकें। विद्यादान के पुनीत धर्म के निर्वहन में अपने जीवन की आहुति दे सकूँ ।