मानवता के साथ विकास
Manavta ke Sath Vikas
पाषाणकालीन सभ्यता के आरंभिक लक्षणों को अपनाने के बाद से मानव ने जिस तीव्र गति से अपना विकास किया है, वह निश्चित रूप से सराहनीय है, परन्तु जैसे कभी भी सारे अच्छे काम एक साथ नहीं हो सकते उनके साथ कुछ बुरे कामों का होना भी अवश्यंभावी है। इसलिए मानव से कुछ ऐसे कार्य भी हुए हैं जो स्वयं उसके लिए ही खतरनाक साबित हुए हैं। मानव स्वभाव से ही बुद्धिमान और सूझ-बूझ वाला होने के साथ-साथ ” महत्वाकांक्षी भी है। इसलिए वह अपनी जरूरतों के लिए नित्य नए मार्गो की तलाश करता हुआ आगे बढ़ने की ओर अग्रसर रहता है। ऐसी स्थिति में मानव बहुत स्वार्थी हो जाता है और वह मानवीयता के विशिष्ट गुणों को भूलने लगता है। इसी कारण हमारे समाज में वर्तमान में विभिन्न स्तरों पर असमानता स्पष्ट दिखाई देती है।
विकास की सोच ही मानव के कारण उत्पन्न हुई है। वह ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। कोई जीवन कृति ऐसी नहीं है जो स्वयं में परिवर्तन के लिए उस प्रकार से चिंतन कर सके जिस प्रकार से मानव सोचता रहता है। परन्तु जब से मानव में आध्यात्मिकता की कमी आने लगी है और भौतिकवादी प्रवृत्ति हावी होने लगी है, तब से विकास का स्वरूप परिवर्तित हो गया। विकास की धारणा पहले ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ पर आधारित थी। परन्तु – आजकल विकास ने जो दिशा प्राप्त कर ली है, उसमें बहुत से गैर-मानवीय कार्यों को हवा दी है।
मानव ने तीव्र गति से अपना सामाजिक-सांस्कृतिक विकास किया है। कबीलाई एवं भ्रमणशील जीवन से शुरुआत कर आज वह परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व में स्थान पा चुका है। समाज हमेशा से ही परिवर्तनशील रहा है। पहले तो मानव ने सभी प्रजातियों के साथ संघर्ष किया। मानव पहले अपने बाहरी रूप से पहचाना जाता था परन्तु धीरे-धीरे वह अनेक जातियों एवं प्रजातियों में बंट गया। मानव जब एक-दूसरे से ताकत का संघर्ष करने लगा तो जातियों एवं प्रजातियों के आधार पर संघर्ष शुरु हुआ। तब एक मानव दूसरे मानव को दुश्मन समझने लगा। विकास के लिए मानव में प्रतियोगिता की भावना का होना अति आवश्यक है, परन्तु यह भावना सकारात्मक होनी चाहिए, न कि नकारात्मक। अपनी भलाई और फायदा के लिए कभी भी दूसरों पर आश्रित नहीं होना चाहिए।
शान्ति एवं सह-अस्तित्व पर आधारित विकासात्मक कार्य के लिए मानव प्रजाति अन्य प्रजातियों से पृथक है। किन्तु जब इसके कार्य बहुजन के हित के विरुद्ध और बुरे होने लगेंगे, तब उसके कार्य अमानवीय-पशुओं की भांति ही होंगे। आजकल विश्व राजनीति में विकसित, विकासशील और अविकसित के आधार पर क्षेत्र-क्षेत्र के आधार पर जिस प्रकार का व्यापक विभेद दृष्टिगत हो रहा है, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि मानव अपने विकास के लिए अमानवीय काम भी करने लगा है। जब ऐसा हो तब दिमाग में यही ख्याल आता है कि क्या विकास का कोई मानवीय पक्ष नहीं है और यदि नहीं है तो होना चाहिए या नहीं? विकास के लिए कब तक अमानवीय कार्यों को हवा देना जारी रखा जाएगा।
आज सारी दुनिया अनेक धर्मों में बँटी हुई है और अपने धर्म को बढ़ाने के लिए धार्मिक पंथी लोग दूसरों को चोट पहुँचाना भी नहीं भूलते। ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने धर्म में शामिल करने के लिए धन का पलोभन और डराया भी जाता है। यदि कोई व्यक्ति हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्मो पर गर्व करता है तो इसमें कोई भी बुराई नहीं है। मगर यदि वह अपने धर्म को ऊँचा उठाने के लिए दूसरे धर्म की बुराई करता है तो यह सरासर अमानवीयता है। मानवीय धारणा तो यह है कि अपने धर्म के साथ-साथ हमारे भारत में प्राचीन काल से ही सामाजिक व्यवस्था को उस प्रकार से बनाया गया है कि श्रम का समान विभाजन हो सके। पुरुषों को श्रमसाध्य एवं घर के बाहर के कार्यों को निबटाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। परन्त शारीरिक रूप से अधिक बलवान पुरुष ने कमजोर स्त्रियों का अपने बल के आधार पर शोषण करना शुरु कर दिया। जिससे महिलाओं का जीवन दभर हो गया और उनके कामों की उपेक्षा की जाने लगी। ऐसा होने से महिलाओं ने अपने आपको असुरक्षित महसूस करना शुरु कर दिया। महिलाओं को पुरुष वर्ग के सामने अपने आप को स्थापित करने के लिए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी। पुरुषों ने महिलाओं के घर से बाहर निकलने की पहले तो उपेक्षा की, परन्तु बाद में उन्हें घर के बाहर स्थान मिल ही गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि पुरुषों ने अधिक शोषण की नीति अपना ली। अब महिलाओं को घर के साथ-साथ बाहर का काम भी करना पड़ता है। इसके बावजूद भी पुरुष उनका अब भी शोषण करता है।
महिलाओं के घर छोड़ देने से एक और, समस्या उत्पन्न हो गई है। अब मासूम बच्चों को ममत्व से वंचित होना पड़ रहा है और उनका रख-रखाव अच्छी जगहों पर नहीं हो रहा है। पुरुषों की इतनी छोटी और संकुचित मानसिकता के कारण कामकाजी महिलाओं को भी अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। पुरुषों द्वारा अमर्यादित व्यावहार किया जाना, घर के कार्यों में उनका हाथ नहीं बँटाया जाना, जिससे उन्हें अपनी स्वावलंबन की कीमत दुगनी मेहनत करके चुकानी पड़ती है। महिलाएँ आज समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उनकी भी आशाएँ, इच्छाएँ स्वप्न और अस्तित्व है। यदि वह सम्मानपूर्ण व्यवहार चाहती है और पुरुष वर्ग के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहती हैं तो इसके लिए उन्हें रोकना या प्रताड़ित करना अमानवीय है।
पिछले हजारों सालों में विज्ञान ने तेजी से विकास किया है। जिसके कारण मानव गुफाओं से ऊपर उठकर भवनों में आ गया है और अनेक प्रकार के भौतिक संसाधनों से युक्त और परिपूर्ण हो गया है। अब विश्व के किसी भाग में घूमना या वहाँ के बारे में जानकारी लेना बहुत आसान हो गया है, आज हजारों किलोमीटर दूर फोन से बात की जा सकती है। कम्प्यूटर के माध्यम से पलभर में बहुत सारा काम आसानी से हो जाता है, परन्तु दूसरी ओर विज्ञान ने परमाणु बम, हाइड्रोजन बम और रासायनिक हथियारों आदि जैसे विनाशकारी उपकरण भी प्रदान किए हैं। विज्ञान ने औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित किया तो उससे हमें अधिक मात्रा में उत्पादों की प्राप्ति तो होने लगी है, परन्तु इनमें प्रयुक्त होने वाले रसायनों ने वायु-प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि उत्पन्न कर पर्यावरण को मानव के लिए प्रतिकूल बना दिया है। विज्ञान ने मानव के विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है, पर इस विकास के साथ मनुष्य का अमानवीय पक्ष भी जुड़ा है।
मानव ने अपने विकास क्रम में जिस क्षेत्र में सर्वाधिक तीव्र गति से विकास किया है, वह है राजनीति। अब ऐसा वातावरण उपस्थित हो गया है कि विश्व का प्रत्येक व्यक्ति अब राजनीति को समझने लगा है, परन्तु पृथ्वी पर मनुष्यों का यह विकास भी मानवीय नहीं है। ताकत और धन के लालच में सत्ता हड़पने के लिए राजनीति में घिनौने खेल खेले जा रहे हैं। जिसके कारण जनता भी उसी दिशा में जा रही है और पतन की ओर अग्रसर हो रही है। आखिर काले-गोरे के आधार पर, पूर्व-पश्चिम के आधार पर, अमीर-गरीब के आधार पर, ऊँच-नीच के आधार पर, और सबसे बढ़कर सम्प्रदाय के आधार पर भेदभाव करके राज्य करना कहाँ तक मानवीय है? विश्व के अधिकांश देशों द्वारा लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को अपनाना या उसकी प्राप्ति के लिए संघर्ष करना निश्चित रूप से राजनीतिक विकास दिखाता है परन्तु भेदभाव पर आधारित राजनीति विकास का अमानवीय पक्ष प्रस्तुत करता है। आतंकवाद और उग्रवाद भी काफी हद तक अनुचित राजनीति का ही देन है। जब किसी भी व्यक्ति के साथ शोषण हागा ता उसक खिलाफ आवाज उठाना ठीक प्रयास है मगर अपनी मांगों को पूरा करने के लिए निर्दोषों का खून बहाना और सारे देश में भय फैलाना भी अमानवीय कार्य है। वह अपने शांतिपूर्ण प्रयासों से अपनी मागा का मनवाने में सफल नहीं होगा, तो आतंकवाद और उग्रवाद अमानवीय है। मगर इस अमानवीयता में यदि दोनों गुटों के लोग निर्दोषों का खून बहा दें तो यह कितना अमानवीय है इसका हम अंदाजा लगा सकते हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी में विकास से संचार के क्षेत्र में क्रांति का उदय हुआ है। इससे सम्पूर्ण विश्व एक-दूसरे से जुड़ा हुआ नजर आ रहा है। संचार क्रांति से सचनाओं के आदान-प्रदान में सरलता और सुगमता आती है तो वह ठीक है। किंतु यदि इसका प्रयोग करके संचार कम्पनियाँ घर-घर में मनवांछित अश्लीलता और हिंसा को दिखाए तो यह अमानवीय व्यावहार है। इसको मर्यादा और एक इच्छा के दो पलड़ों पर संतुलित करने के लिए ऐसे कार्यक्रमों में दिखाने के लिए कम से कम क्षेत्र विशेष का तो ध्यान रखा ही जाना चाहिए।
विश्व के कुछ देशों ने तीव्र गति से प्रगति कर ली है और कुछ देश अभी तक अत्यंत पिछड़े हुए हैं। ऐसे में विकसित देश, विकासशील देशों के विकास में बाधक बन रहे हैं। उनका कहना है कि औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन देने से पर्यावरण के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है और उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। परन्तु यह भी स्पष्ट है कि औद्योगिक विकास के लिए ये देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते। ऐसे में यदि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित-विकसित किया जाए तो समस्या से कुछ हद तक उभरा जा सकता है। विकसित देशों को विकासशील देशों को आर्थिक सहायता तो देनी ही होगी, साथ ही सुरक्षित प्रौद्योगिकी भी उपलब्ध करानी होगी। विकासशील देशों को भी वैसी प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित करना होगा, जो पर्यावरण के अनुकूल हो।
वस्तुतः विकास का मानवीय पक्ष ढूँढने की कोशिश समय की माँग है, क्योंकि मानव को यह बताना आवश्यक है कि वह जो कार्य कर रहा है, वह उसके लिए और अन्यों के लिए कितना हितकर है। मानव को सकारात्मक कार्य के प्रति अग्रसर होना चाहिए। शांति एवं अंहिसा के साथ महिलाओं और पर्यावरण का सम्मान करते हुए विकास के पथ पर कदम बढ़ाने से ही ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ की स्थापना हो सकती है। विचार तथा अनभव में श्रेष्ठता और उदारता मानत मात्र के लिए होती है। विज्ञान, कला और संस्कृति सम्पूर्ण मानवता की विरासत है, उस पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं है। ऐसा संभव है कि किसी विचार की उत्पत्ति किसी विशेष क्षेत्र में किसी विशेष वर्ग से हुई हो, परन्तु एक बार उस विचार का जन्म हो जाने के उपरांत कोई भी मनुष्य चाहे तो उस विचार को अपना सकता है। विश्व का पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण तथा अक्षांश और देशांतर के आधार पर भौगोलिक विखण्डन बिल्कुल निराधार है। संप्रदाय विशेष समुदाय बिल्कुल निराधार है। संप्रदाय विशेष, समुदाय विशेष और जाति विशेष के नाम पर विचारों आदर्शों आदि की स्थापना करना समुदाय की संकीर्ण भावना का सूचक है।
जब मनुष्य एक-दूसरे को मनुष्य समझने लगेगा, वह एक-दूसरे से प्रेमपूर्ण व्यावहार करने लगेगा तब सम्पूर्ण विश्व शांति और अंहिसा के मार्ग पर चलकर पूर्ण विकास कर लेगा। मनुष्य का एक ही धर्म होना चाहिए ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘एक सत्विप्राः बहुदा वदन्ति’ के आधार पर ‘ईश्वर एक है’ की मान्यता पर बल देना चाहिए।