महर्षि स्वामी दयानन्द
Maharishi Swami Dayanand
भूमिका- इस संत और साधु परन्तु धर्मवीर महामानव का जीवन संघर्षों का इतिहास है परन्तु इनका लक्ष्य अपने जीवन की श्री वृद्धि करना नहीं था अपितु अपने देश वासियों को नई चेतना और नई जागृति और प्रेरित करना था। भारतीय इतिहास के नव निर्माण करने वाले महामानवों में देव दयानन्द का नाम अग्रगण्य एवं पूजनीय है। महामानव दयानन्द की देन आज देश में आर्य समाज और विभिन्न डी० ए० वी० संस्थाओं के रूप में शत-शत धाराओं के रूप में प्रवाहित हो रही है। तन और मन से दयानन्द दिव्य थे, शक्तिके पुंज थे। महर्षि दयानन्द सुधारकों में अग्रदूत, आर्य समाज के संस्थापक जातपात के भेदभाव को दूर करने वाले थे। महर्षि दयानन्द आज नहीं है पर भारत का कोना-कोना उनके गुणों का गुणगान करता है।
तत्कालीन परिस्थितियाँ- उनके जन्म के समय समाज अनेक त्रुटियों से पतन के गर्त में गिर चुका था समाज के क्षेत्र में जात-पात का बोलवाला था। छूआछूत का भूत सब पर सवार था। बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि कुरीतियां बढ़ फूल रही थी। सामाजिक पतन हो रहा था। पाखण्ड और दम्भ का बोलवाला था। लोग अज्ञानता के गढ़े में गिरे पड़े थे। ईसा मिश्नरी प्रलोभन देकर लोगों को ईसाई बना रहे थे। अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ें पाताल तक पहुँच चुकी थी, देश को लूटा जा रहा था। छल और बल से भारत का सर्वस्वलूटा जा रहा था। ठीक ऐसे संकटमय समय में गुजरात में क्रान्ति का सूर्य उदय हुआ।
परिचय- महर्षि स्वामी दयानन्द श्री का जन्म 1824 में गुजरात (कठियावाड) के मौरवी जिला के टंकारा नामक गांव में हुआ। स्वामी जी के पिता जमींदार थे और शिव के भकत थे। पिता जी ने इनका नाम मूल शंकर रखा। पांच वर्ष की आयु में इन्हें पंडित के पास भेजा गया। मूल शंकर खूब मन लगाकर संस्कृत पढ़ने लगे। चौदह वर्षकी आयु में पिता जी ने मूलशंकर से शिवरात्रि का व्रत रखवाया। सारा दिन भूखे रहे। रात को शिव भकत सोगए पर मूलशंकर जागते रहे। उन्होंने देखा कि शिव मूर्ति पर रखे हुए ने वेद्य को खाने के लिए मूर्ति पर चूहे चढ़ रहे हैं। मूलशंकर सच्चे प्रभु की खोज के लिए असुर हो उठे। पिता ने इनका विवाह करना चाहा तो ऐसा देखर मूलशंकर वाईस वर्ष की आयु में घर से भाग निकले।
ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्न और प्रचार- मूल शंकर सच्चे गुरू की खोज में इधर-उधर भटकने लगे। बतीस वर्ष की आयु में स्वामी जी ने कठोर परिश्रम से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति की। स्वामी पूर्णानन्द जी सरस्वती इनके गुरू थे। योग्य गुरू को पाकर शिष्य और योग्य शिष्य को पाकर गुरू दोनों ही धन्य हो गए। विद्या समाप्ति के बाद गुरू जी ने यही कहा ‘अज्ञान के अन्धकार को दूर करो’ लोगों को सच्चा मार्ग दिखाओ। गुरू जी के बचनों को दयानन्द ने जीवन पर्यन्त निभाया।
मृत्यु- सन् 1878 को स्वामीजी जोधपुर के राजा यशवन्त सिंह के नियन्त्रण पर वहाँ पहुंचे। राजा के साथ वेश्या को बैठे देख स्वामी जी का मन दु:खी हुआ। स्वामी जी के वचनों से राजा अपमानित हुआ और बदले की भावना से रसोइए जगन्नाथ को धन का लोभ देकर स्वामी जी के भोजन और दूध में जहर मिला दिया। स्वामी जी सब-कुछ ताड़ गए लेकिन समय हाथ से निकल चुका था। सन् 1883 दीवाली के दिन, सूर्य अस्त के समय “ईश्वरी तेरी इच्छा पूर्ण हो” इस वाक्य का तीन वार दोहराया और स्वामी जी स्वर्ग सिधार गए।
सुधारवादी- स्वामी दयानन्द शुद्ध भारतीय थे। उन्होंने जो सुधार किए वे भारतीय संस्कृति की दृष्टि से किए। स्वामी जी ने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। विधवा विवाह की अनुमति दी। नारी जाति का उत्थान किया। भारतीय एकता पर बल मिला दिया। ईसाई बनने पर रोक लगाई। हिन्दी का प्रचार किया। भारतीय स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न किए। सच्ची बात यह है कि स्वामी जी के पश्चात् महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू तथा कांग्रेस पार्टी ने भारत को सुधारने के लिए जो भी लक्ष्य बनाए, उनका सूत्रपात स्वामी दयानन्द जी पहले ही कर चुके थे।
उपसंहार- समाज के नव-निर्माण के लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। उन्होंने आर्य समाज की स्थापना के मूल में यह विचार रखा था कि यह समाज ऐसा होगा जिसका आधार शिक्षा और वैदिक ज्ञान होगा जो सांस्कृतिक उत्थान के माध्यम से विश्व का हित चाहेगा।