लोहड़ी
Lohri
वसन्त और वैसाखी की भांति लोहड़ी भी एक ऐसा त्योहार है। जो कि पंजाब में विशेष रूप से मनाया जाता है। यह पौष-मास के अन्तिम दिन (मध्य-जनवरी) मनाया जाता है। लोहड़ी के त्योहार का नामकरण कैसे हुआ। इस संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत हैं।
भाई काहन सिंह के मतानुसार ‘लोहड़ी’ का मूल “तिल-रेवड़ी है। जिससे ‘तिलोहड़ी’ बना तथा इसी शब्द का आगामी रूपांतर ‘लोहड़ी’ हो गया। लोहड़ी के दिन तिल व रेवड़ी (गुड़ की रेवड़ी) आम तौर पर खाए जाते हैं। तिल तथा गुड़ के मिश्रण से रेवड़ियां बनाई जाती हैं।
कुछ लोग ‘लोहड़ी’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘लोहडी’ शब्द से मानते हैं। शनैः-शनैः यह शब्द परिवर्तित होकर लोहडी से लोहड़ी हो गया। तिलों को भूनने वाले, गहरे तल वाले लोहे के बर्तन को “लोहडी” कहते हैं।
लोहड़ी शब्द लोह+अरि में से उत्पन्न हुआ। प्रतीत होता है। लौह अर्थात् लोहा; अरि अर्थात् शत्रु लोहे की भांति दृढ़ शत्रु लोहड़ी की रात सर्वाधिक लम्बी तथा ठण्डी रात होती है। अतएव इस रात को देर तक लोग लकड़ियां जलाकर अग्नि के इर्द-गिर्द बैठते हैं। लोक-गीत तथा भक्ति गीत गाए जाते हैं। जिस घर में नवजात शिशु विशेषतः पुत्र का जन्म हुआ हो उसमें लोहड़ी की गहमा-गहमी कुछ अधिक हुआ करती है।
लोहड़ी से एक सप्ताह पूर्व लड़के लड़कियां टोलियां बनाकर रात्रि प्रारंभ होते ही द्वार-द्वार पर लोहड़ी मांगने निकल पड़ते हैं। वे पैसे, अनाज, लकड़ियां, गोबर की पाथियां इत्यादि एकत्र करते हैं। वे लकड़ियां तथा पाथियां लोहड़ी वाली रात्रि को जलाने के लिए इकट्ठी करते रहते हैं। अनाज किसी दुकान पर विक्रय करके रुपये- पैसे प्राप्त कर लेते हैं तथा फिर जितनी राशि जमा हुई हो, वह सारी आपस में टोली के सभी सदस्यों में वितरित कर दी जाती है।
लड़के-लड़कियां एक घर से दूसरे घर लोहड़ी का शगुन मांगते हुए। बहुत मनोरंजक गीत गाते हैं। जब काफी देर तक गीत गाने के बाद भी घर की स्वामिनी उन्हें भेट देने दहलीज तक नहीं आती तोवे कई तरह की अन्य युक्तियों का प्रयोग करते हैं। उनके गीतों की लय बदल जाती है।
“पा माई पा, काले कुत्ते नू वी पा,काला कुत्ता देवे दुआवां, तेरियां जीण मज्झां-गांवां।”
अथवा
“सुट्ट गोहा (गोबर) खा खोआ, सुट्ट लक्कड़, खा शक्कर। पा अआ बई अटुआ खोल माई बटुआ।”
लोहड़ी मांगते समय दूल्हे भट्टी के संबंध में यह गीत अवश्य गाया जाता है। एक लड़का गीत की प्रत्येक पंक्ति को बारी-बारी से बोलेगा तथा शेष सभी उसके पीछे हो बोलेंगे:
सुन्दर, मुंदरिए-हो,
तेरा कौण बिचारा-हो
दूल्हा-भट्टी वाला-हो
दूल्हे धी विहायी-हो
कुड़ी दा लाल पटाका-हो
कुड़ी दा सालू पाटा-हो
सालू कौण सिवाए-हो
चाचे चूरी कुट्टी-हो
जमीदारां लुट्टी-हो
जमीदार सदाए-हो
गिण-गिण पोले लाए-हो
यह गाथा एक गरीब किसान की सुन्दर लड़की के विवाह की है। जिसकी दूल्हे-भट्टी ने सहायता की थी। कुछ शरारती तत्वों ने इस लड़की के विवाह में विघ्न डालना चाहा था। किन्तु दूल्हे-भट्टी ने उन सबको पकड़ कर उनकी खूब पिटाई की।
लोहड़ी मांगने वाली टोली अक्सर घर के सदस्यों की समृद्धि के लिए शुभकामना करेगी:
तीली हरियां भरी, तीली मोतियां जड़ी,
तीली उस बिहड़े जा, जित्थे गीगे दा वियाह,
गीगा जम्मिया सी, गुड़ वण्डिया सी,
गुड़ दीआं रेवड़ियां सी, भरावां दीआं जोड़ियां सी,
पा माई पा, काले कुत्ते नू वी पा,
काला कुत्ता देवे दुआवां, तेरिआं जीण मज्झां-गांवां,
मज्झां-गांवां ने दित्ता दुद्ध, जींण तेरे सत्ते पुत्त,
सत्ते पुत्तां दी कुड़माई, डोली छम-छम कर दी आई।
एक और दीर्घ गीत भी गाया जाता है। जिसे “वन्झली का गीत” पुकारा जाता है। इसमें कथा वस्तु तो बेजोड़ है ही परन्तु प्रत्येक पंक्ति का तौल- तुकांत अवश्य स्थापित किया गया है। प्रथम पंक्ति में ही मानो बलपूर्वक दूसरी पंक्ति बना दी गई हो है। वहां भी प्रत्येक पंक्ति में एक लड़का बोलता है तथा शेष सभी उसके पीछे मिश्रित स्वर में बोलते हैं। “वन्झली”, जैसे।
आखो मुण्डियो, वन्झली वन्झली !
वन्झली छांटां लम्मीयां वन्झली !
मींह वदिया ते कणकां जम्मीयां वन्झली !
कणकां विच्च बटेरे वन्झली !
दो साधू दे दो मेरे वन्झली !
आ साधू घर नू वन्झली !
बाबे वाले राह नू वन्झली !
जित्थे बाबा मारया वन्झली !
पक्का कोट सवारया वन्झली !
पक्के कोट दी मोरियां वन्झली !
जीण साहिब दीयां घोड़ियां वन्झली !
घोणियां गल तड़ग्गे वन्झली !
जीण साहिब दे ढग्गे वन्झली !
ढग्गियां गल पंज्जाली वन्झली !
जीवे साहिब दी साली वन्झली !
साली पैर जुत्ती वन्झली !
जीवे साहिब दी कुत्ती वन्झली !
कुत्ती दे कत्तूरे वन्झली !
नब्बे-सौ परे वन्झली!