कुल्लू के दशहरा का मेला – हिमाचल
Kullu ke Dussehra ka Mela – Himachal
भारत के राज्यों में हिमाचल अपने ढंग का अलौकिक राज्य है। आबादी की दृष्टि से यह बहुत छोटा है। केवल 35-36 लाख मनुष्य यहां बसते हैं।पर प्राकृतिक वैभव और सौंदर्य की दृष्टि से यह राज्य अपनी समता नहीं रखता। पर्वतों की ऊँची-ऊँची चोटियाँ झरने, नदिया और हरे-भरे उपवनों में इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा दिये हैं। जो भी पर्यटक हिमाचल की छवि को देखता है। अपने मन को खोये बिना नहीं रहता। राजधानी शिमला है। देश के कोने-कोने से पर्यटक शिमला पहुँचते ही रहते हैं। गर्मी के दिनों में तो शिमला सैलानियों का केन्द्र बन जाता है।
प्राचीन लोक कथाओं के अनुसार हिमाचल का राज्य किन्नरों और देवताओं का प्रदेश है। हिमाचल की घाटियों में सर्वत्र मंदिर ही मंदिर दिखाई पड़ते हैं। चाहे जिस गांव में जाइये, आदमी तो कम मिलेंगे पर देवताओं की मूर्तियाँ अधिक मिलेगी। गांव में एक पताका भी फहराती हुई अवश्य दिखाई पड़ेगी। किन्नर संगीत और नृत्य के देवता माने जाते हैं। हिमाचल के लोग भी नृत्य और संगीत के बड़े प्रेमी होते हैं। यों तो वे सदैव आपस में मिल कर नाचते और गाते हैं। पर पर्वो और मेलों के अवसरों पर तो उनके नृत्यों और गीतों में पंख लग जाते हैं। वे जब उत्साह और उमंग से भर कर नाचने-गाने लगते हैं। तो मनुष्य की तो बात ही क्या, स्वर्ग के देवता भी मुग्ध हुये बिना नहीं रहते।
यो तो हिमाचल में चारों ओर प्रकृति का वैभव बिखरा हुआ है। पर कुल्लू की घाटी में जो वैभव देखने को मिलता है। उस पर नन्दन बन की छवि को भी लुटाया जा सकता है। चारों ओर पर्वत, पर्वतों की हरी-भरी घाटिया, घाटियों में बसे हुए। छोटे-छोटे गांव, गांवों में बने हुये छोटे-छोटे मंदिर और मंदिरों में बजते हुये शंख और घड़ियाल मन को विमोहित कर लेते हैं। नर-नारी भोले-भाले और सरल हृदय के होते हैं। काम करते हुए भी गीत गाते हैं। उनके पैरों की थिरकन देखने योग्य होती है।
कुल्लू की घाटी में कई पर्व मनाये जाते हैं। कई मेले भी लगते हैं। सभी पर्व और मेले धर्म तथा पुरानी संस्कृति से सम्बन्धित होते हैं। किसी-किसी पर्व और मेले के साथ पुरानी लोककथा।यें भी जुड़ी रहती हैं। ऐसी कथा।ये जुड़ी रहती हैं।जो मनोरंजक तो होती ही हैं।प्रेरक भी होती हैं।
यो तो कुल्लू की घाटी में कई मेले लगते हैं।पर दशहरा के अवसर पर कुल्लू में जो मेला लगता है। वह अवर्णननीय होता है। कहते हैं कुल्लू के समान दशहरा का मेला सारे भारत में और कहीं नहीं लगता। मेले में हिमाचल के लोग को सम्मिलित होते ही हैं। भारत के दूसरे राज्यों के लोग भी सम्मिलित होते हैं।
कुल्लू के दशहरे का उत्सव एक ढलुआ मैदान में मनाया जाता है। घाटी के सभी देवता और देविया उस मैदान में लाई जाती हैं। देवताओं और देवियों की उपस्थिति में श्री रघुनाथ जी की पूजा और अर्चना की जाती है। पूजा-अर्चना का क्रम लगातार सात दिनों तक चलता रहता है। पूजा-अर्चना में राम की पूरी कथा नहीं दुहराई जाती, केवल लंका दहन ही होता है। लका दहन के पश्चात् उत्सव समाप्त हो जाता है।
एक दंत कथा के अनुसार आज से तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व कुल्लू के ततकालीन राजा जगतसिह किसी भयानक रोग से ग्रसित हो गये। उन्होंने बहुत उपचार किये, पर कोई लाभ नहीं हुआ। उनके पुरोहितों ने उनसे कहा-जब तक वे रघुनाथ जी का एक मंदिर बनवा कर उसमें उनकी प्रतिमा स्थापित नहीं करेंगे, उनका रोग अच्छा नहीं होगा।
जगतसिह ने सुल्तानपुर में मंदिर तो बनवा दिया, पर जब प्रतिमा का प्रश्न सामने आया, तो वे चिता में पड़ गये, सोचने लगे प्रतिमा मिले, तो कहां मिले ? आखिर उन्होंने यह काम अपने एक कर्मचारी दामोदर को सुपुर्द किया। दामोदर अयोध्या जी गया। वह रघुनाथ जी की एक कास प्रतिमा चुराने में सफल हो गया। वह 1651 ई० में उस प्रतिमा को चुराकर कुल्लू ले गया। राजा ने बड़ी धूमधाम से उस प्रतिमा की स्थापना की। राजा उसी प्रतिमा को अपने राज्य का स्वामी मान कर स्वयं एक सरदार के रूप में राज्य करने लगा।
कुछ दिनों पश्चात् एक वैरागी संत ने राजा को सलाह दी, दशहरा के अवसर पर कुल्लू के ढालपुर मैदान में रघुनाथ जी की प्रतिमा को बड़ी धूम-धान से ढालपुर मैदान में लाया जाय और देवियों, देवताओं की उपस्थित में उनकी पूजा-अर्चना की जाये। राजा ने साधु की सलाह मान ली। बस, श्री रघुनाथ जी की मूर्ति उसी दिन से रथपर लाई जाने लगी। कुल्लू के सभी देवियाँ और देवता भी लाए जाने लगी। सब की उपस्थिति में श्री रघुनाथ जी की पूजा-अर्चना होने लगी। आज से 300 वर्ष पूर्व जो पूजा-अर्चना आरंभ हुई थी। वह आज भी ज्यो की त्यों चली आ है।
रघुनाथ जी की मूर्ति जिस रथ पर बिठा कर लाई जाती है। वह 28 पहियों वाला एक बहुत बड़ा पुराना रथ है। रथ में लंबी-लंबी रस्सियाँ लगी रहती हैं। कलगीदार टोपी पहने और रंग-बिरंगी पोशाकों से सज्जित कुल्लू के लोग बड़ी श्रद्धा के साथ उस रथ को खींचते हैं। रथ के पीछे देवियों और देवताओं की पालकियाँ चलती हैं। पालकियों को लेकर चलने वाले लोग भी कलगीदार टोपी और रंग-बिरंगी पोशाकें पहने रहते हैं। पालकियो के पीछे बहुत बड़ी भीड़ चलती है। श्री रघुनाथ जी के रथ के आगे-आगे तरह-तरह केबाजे बजते हैं और जय ध्वनि होती है।
रघुनाथ जी के रथ को ढालपुर मैदान में लाया जाता है। वहाँ उनका दरबार लगता है। वह दरबार वैसा ही होता है। जैसा स्वर्ग के राजा इन्द्र का होता है।
रघुनाथजी 7 दिनों तक देवियों और देवताओं के साथ अस्थायी शिविरों में निवास करते हैं। सात दिनों तक लगातार नृत्य और संगीत के तालों से वातावरण गूंजता रहता है। सात दिनों के पश्चात् श्री रघुनाथ जी को पुनः सुल्तानपुर के मंदिर में ले जाया जाता है। सभी देवियों और देवताओं को भी उनके मंदिरों में पहुँचा दिया जाता है।
सात दिनों के पश्चात् उत्सव तो समाप्त हो जाता है पर उसकी याद पूरे वर्ष भर बनी रहती है। क्योंकि उत्सव के दिनों में जो एकता और बन्धुता देखने को मिलती है। उसे बार-बार देखने को मन चाहता है। उत्सव के दिनों में एकता और बन्धुता तो दिखाई पड़ती ही है। आनन्द का सागर भी बहा करता है। देश के लोग ही नहीं, विदेशी भी उस सागर में डूब जाया करते हैं।