कोटेश्वर का मेला – कच्छ
Koteshwar ka Mela – Kutch
कच्छ गुजरात में है। गुजरात भगवान श्री कृष्ण की भोग्य-भूमि के रूप में प्रसिद्ध है। मथुरा में जन्म लेकर, वृन्दावन में रास लीलायें करने के पश्चात् श्री कृष्ण द्वारिका चले गये। द्वारिका में ही उन्होने बहुत दिनों तक राज किया। द्वारिका गुजरात में ही है। अतः सारा गुजरात श्री कृष्ण की लीलाओं के रस से अभिबिक्त है। कोने-कोने में रास और गर्बा नृत्य होता है। कृष्णा की लीलाओं से सम्बन्धित बहुत-सी लोक कथाएँ भी प्रचलित हैं। बहुत से मेले भी लगते हैं और पर्व भी मनाये जाते हैं।
गुजरात में एक ओर जहाँ श्री कृष्ण के प्रेम का संगीत गूंजता है। वहीं दूसरी ओर शिव जी का के डमरु का नाद भी सुनाई पड़ता है, क्योकि शिव जी सोमनाथ नामक ज्योतिलिंग गुजरात में ही है। पुराणों में सोमनाथ के महत्त्व का वर्णन प्रशंसनीय शब्दों में किया गया। है। कहा जाता है कि गौतम ऋषि के शाप से चन्द्रमा जब क्षय के रोग से ग्रसित हो गया था। तो उसने क्षय के रोग के निवारण के लिये आज के सोमनाथ के मंदिर के पास ही बैठ कर शिवजी का तप किया था। शिवजी ने उसके तप से प्रसन्न होकर उसे यह स्थान सोमनाथ के नाम से अभिहित किया। जाने लगा और उसी समय से सारे गुजरात में सोमनाथ की पूजा-अर्चना भी होने लगी।
कच्छ का कोटेश्वर मंदिर शिवजी का ही मंदिर है। मंदिर बड़ा प्राचीन है। मंदिर कब बना था, इस सम्बन्ध में कुछ ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता, पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि मंदिर में जो शिवलिंग है। वह बहुत पुराना है। कच्छ में ऐसी अनेक लोक कथायें प्रचलित हैं। जो कोटेश्वर की पूजा-अर्चना से सम्बन्धित हैं। कोटेश्वर की पूजा-अर्चना को लेकर बहुत से लोक गीत भी लिखे गये हैं। कच्छ के कोने-कोने के लोग उन गीतों का गान बड़ी श्रद्धा के साथ करते हैं।
यो तो कोटेश्वर के मदिर में प्रतिदिन पूजा-अर्चना करने वालों की भीड़ एकत्र होती है पर शिव रात्रि के दिन अपार भीड़ एकत्र होती है। उस भीड़ में कच्छ के लोग तो होते ही हैं।कच्छ से बाहर के लोग भी होते हैं। मनुष्यों का ऐसा संगम होता है कि चारो ओर सिर ही सिर दिखाई पड़ते हैं। सभी जातियों और सभी सम्प्रदायों के लोग इकट्ठा होते हैं। सभी एक साथ कोटेश्वर महादेव के सामने झुकते हैं और सभी एक साथ उन पर पुष्पों की वर्षा करते हैं। इस समय यहाँ न जाति-भेद दिखाई पड़ता है। न सम्प्रदाय भेद। सारे लौकिक भेद कोटेश्वर की भक्ति और प्रेम में विलीन से हो जाते हैं।
कोटेश्वर महादेव के सम्बन्ध में एक पुरानी कथा भी प्रचलित है। कहा जाता है- लंका का राजा रावण शिवजी को प्रसन्न करके उन्हें कैलाश से लंका ले जा रहा था। जब वह इन्हें कंधे पर लेकर समुद्र तट पर पहुँचा, तो वह उन्हें धरती पर रख कर समुद्र के उस पार जाने का साधन ढूँढने लगा।
देवता नहीं चाहते थे कि रावण शिवलिंग को लंका ले जाय। अतः उन्होंने रावण के साथ छल किया। रावण ने शिवलिंग को जहाँ धरती पर रखा था। देवताओं ने वहाँ करोड़ शिवलिंग स्थापित कर दिये। रावण जब लौटकर उस स्थान पर गया तो उसके लिये यह पहचानना बड़ा कठिन हो गया कि कौन सा शिवलिंग असली और कौन नकली है। रावण जब पहचान न सका, तो वह नकली शिवलिंग को लेकर लंका चला गया और असली शिवलिंग वहीं रह गया। उसी समय से उस शिवलिंग का नाम कोटेश्वर पड़ गया। क्योकि वह करोड़ शिवलिंग के बीच में स्थापित है। किसी प्रेमी भक्त ने वहाँ मंदिर भी बना दिया। वहीं मंदिर कोटेश्वर के मंदिर के नाम से चारों ओर विख्यात हो गया।
कोटेश्वर का मंदिर समुद्र के किनारे पर है। समुद्र की लहरें दिन-रात कोटेश्वर महादेव की महत्ता के गीत गाया करती हैं। चारों ओर शान्त वातावरण है। ऐसा प्रतीत होता है। मानों समुद्र एक सच्चे उपासक की तरह स्वयम् दिन-रात शिवजी की उपासना में रहता है। पर शिवरात्रि के दिन जब हर-हर नाद से वातावरण गूंजता है। तो समुद्र भी जैसे ठहरने लगता है। हर-हर शब्द बोलने लगता है। जो भी कोई सुनता और देखता है। मुग्ध ही नहीं, मुग्ध होकर अपने को विस्मत कर देता है।