कविवर जयशंकर प्रसाद
Kavivar Jayshankar Prasad
युग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समय-समय पर युग-प्रवर्तक का * उदय होता रहा है। समाज और राष्ट्र की दशा को चित्रित करने वाला साहित्य का युगान्तकारी परिवर्तन को किसी सिद्धहस्त साहित्यकार ही प्रस्तुत करता है। कविवर जयशंकर प्रसाद जी युगान्तकारी साहित्यिक परिवर्तन विशेष को प्रस्तुत करने वाले अत्यधिक लोकप्रिय साहित्य महारथी हैं। आपका नाम छायावाद के प्रवर्तक कवि के रूप में लिया गया है। छायावादी काव्य-चेतना के आप सबसे बड़ा और सबसे पहला स्तम्भ हैं। आपके बाद ही सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा का स्थान रहा है।
श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म संवत् 1668 में काशी के सुप्रतिष्ठित सँधनी साहू के परिवार में हुआ। आपकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई, जहाँ आपने अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत और उर्दू का भली-भाँति ज्ञान प्राप्त किया।
प्रसाद अत्यन्त मेधावी और प्रतिभा सम्पन्न थे। आपमें अल्पायु में ही काव्य-रचना के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे। कवि-गोष्ठियों और कवि-सम्मेलनों के द्वारा आपकी प्रतिभा और निखरने लगी थी। इससे आप दिनों-दिन लोकप्रिय होने लगे थे।
प्रसाद जी का व्यक्तित्व बहुमुखी था। इसलिए अपने विविध प्रकार के साहित्य की संरचना की। नाटक, निबन्ध, उपन्यास सहित आपने काव्य के क्षेत्र में अपनी बेमिसाल भूमिका प्रस्तुत की है। आप द्वारा लिखे गए नाटकों में अजातशत्रु राज्यश्री, जनमेजय का-नागयज्ञ, विशारव, ध्रुवस्यामिनी, स्कन्दगुप्त, कामना, एकपूँट, चन्द्रगुप्त आदि विशेष रूप से हिन्दी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। प्रसाद जी द्वारा विरचित काव्य-झरना, ऑसू, लहर, महाराणा का महत्त्व चित्राधार, कानन-कुसुम और कामायनी हिन्दी काव्यधारी की महान प्रवाहित रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त प्रसाद जी ने श्रेष्ठ उपन्यासों की भी रचनाएँ की हैं कंकाल, तितली और इरावती। ये उपन्यास हिन्दी साहित्य के विशिष्ट उपन्यास हैं।
कविवर प्रसाद को साहित्यिक व्यक्तित्व का मूल्यांकन नाटककार और कवि के रूप में है। नाटकों की संरचना का विधि-विधान और प्रस्तुतीकरण की कला जो प्रसाद जी में है, वह अन्य नाटककारों में आज भी नहीं दिखाई देती है। शैली-विधान और भाषा की सजीवता का अनूठा मिश्रण है।
महाकवि प्रसाद जी को काव्यक्षेत्र में अप्रतिम लोकप्रियता प्राप्त हुई है। यों तो आपके प्रायः सभी काव्य अद्भुत और विशिष्ट हैं, फिर भी कामायनी तो आपकी अमर काव्य-कृति है। इस काव्य-रचना में प्रसाद जी ने मनु और श्रद्धा का वर्णन करते हुए मानव को कर्मक्षेत्र में रहकर ही जीवन को समुन्नत बनाने का मधुर संदेश दिया है। निराशावादी चेतना का विरोध करते हुए प्रसाद जी ने लिखा है–
प्रकृति के यौवन का श्रृंगार,
करेंगे कभी न बासी फूल।
मिलेंगे जाकर वे अतिशीघ्र
आह ! उत्सुक है उनको धूल।।
विश्व की स्वार्थमयी नीति पर कड़ा प्रहार करते हुए प्रसाद जी ने कहा है-
हृदयों का हो आलिंगन,
अपने मन की परवशता।
पहचान सकेंगे नहीं परस्पर,
यह चले विश्व गिरता पड़ता।
प्रसाद जी ने देश-प्रेम की भावना अपनी कविताओं में भरी है। भारत देश । सबसे कितना न्यारा और कितना मधुमय है, इसे कुछ पंक्तियों में देखा जा सकता है–
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
प्रसाद जी प्रेम-पंथ के सच्चे पथिक हैं। ‘आँसू’ कविता के द्वारा प्रसाद जी ने अपनी प्रेयसी से वियुक्त हो जाने का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हुए सच्चे प्रेमी-प्रेमिका की प्रेमानुभूति को वर्णित किया है। वियोगश्रृंगार का एक चित्र देखिए-
जो घनीभूत पीड़ा थी, ।
मस्तिष्क में स्मृति-सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आई।।
कविवर प्रसाद ने अलंकारों के प्रयोग में अद्भुत क्षमता दिखाई है। उपमा अलंकार का एक दृश्य यहाँ प्रस्तुत है—
घन में सुन्दर बिजली सी
बिजली में चपल चमक-सी।
आँखों में काली पुतली,
पुतली में स्याम झलक-सी ।।
इसी तरह के अलंकारों में रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों की छटा अद्भुत रूप में प्रयुक्त है। प्रसाद जी ने मुक्तकशैली के प्रयोग में अपनी काव्य-कला की निपुणता दिखाई है। काव्य में प्रतीकों की योजना लालित्यपूर्ण पदों के द्वारा प्रयुक्त होकर काव्य के वैभव में चार चाँद लगा दिया है। इन सब विशेषताओं के आधार पर प्रसाद जी अपने युग के सर्वश्रेष्ठ कवि सिद्ध होते हैं।