जो तोको काँटा बुवै ताहि बोइ तू फूल
Jo toke kata buve tahi boi tu Phool
महान् व्यक्ति वही है जो अपकार करने वाले व्यक्ति के लिए भी ईष्र्या, वैर की भावना नहीं रखे। अपकारी पर उपकार करना तथा निन्दक को भी गले लगाना मनुष्य की महानता के लक्षण हैं। कबीरदासजी कहते हैं-
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोइ तू फूल ।
तोको फूल को फूल है, वाको है तिरसूल।।
तनसुखराम गुप्तजी अपनी पुस्तक में कबीरदासजी के इस दोहे का विस्तृत अर्थ बतलाते हुए लिखते हैं-
“हे मानव! यदि तेरी सफलता, उन्नति, प्रगति या शुभ काम में कोई भी व्यक्ति बाधा या विघ्न खड़ा करे अथवा बहुत अधिक शत्रुता का भाव रखे या वैसा व्यवहार करे तो भी तुझे उसके प्रति नम्र रहना चाहिए, सद्भाव रखना चाहिए, मधुर व्यवहार करना चाहिए।
तेरी नम्रता, सद्भाव और मधुरता तेरे जीवन में सुगन्ध भरेगा। तेरे पाप समूह को नष्ट करके पुण्य को बढ़ाएगा तथा प्रचुर अर्थ प्रदान करेगा। जबकि यही मानवीय व्यवहार उसके जीवन के दैहिक, दैविक तथा भौतिक तापों में वृद्धि करेगा। उसकी आत्मा को त्रिशूल के समान वेधकर अशान्ति उत्पन्न करेगा।“
कुछ लोगों की आदत होती है कि वे हमेशा ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसे व्यक्ति बैठे-बिठाए ही बिना बात आफत मोल ले लेते हैं। यदि हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगे तो पत्थर की चोट सहने वाला व्यक्ति भी भला कैसे। चुप बैठा रहेगा? वह पत्थर की चोट पाकर दूनी शक्ति से पत्थर का जवाब पत्थर से देने की कोशिश करेगा और इसी बात को लेकर दोनों पक्षों में दुश्मनी बढ़ती जाएगी।
यदि कहीं आग लगती है तो उसे बुझाने का या शान्त करने का प्रयास किया जाता है। न कि आग को फेंक देकर और भी ज्यादा भड़काया जाता है।
जो व्यक्ति दूसरों की राह में काँटा बोते हैं, उनका खुद का विवेक नष्ट हो गया होता है। वे ईष्र्या, देष की अग्नि में खुद भी जलते हैं और दूसरों को भी जलाते हैं लेकिन इतने पर भी वे दुनिया में कहीं चैन और शान्ति नहीं पाते।
बौद्धधर्म के प्रसिद्ध धर्मग्रन्थ ‘धम्मपद’ में कहा गया है कि वैर से वैर कभी धान्त नहीं होता, अवैर से ही वैर शान्त होता है यही सनातन धर्म है। रहीमदास जी का कहना है कि प्रेम करना तो सबसे अच्छा है लेकिन वैर करना किसी के साथ भी अच्छा नहीं है। क्योंकि किसी के साथ वैर करने से मनुष्य की हमेशा हानि ही हानि होती है और लाभ कुछ भी नहीं होता।
कुछ लोग प्रतिशोध की ज्वाला में इस क़दर जले हुए होते हैं कि वे हर कीमत पर दूसरों को बर्बाद कर देना चाहते हैं। जिसके प्रति वैर होता है, उसका घर उजाड़कर तथा सर्वस्व स्वाहा करके ही उनको आनन्द मिलता है। लेकिन पाश्चात्य विद्वान् बेकन मानते हैं कि प्रतिशोध एक प्रकार का जंगली न्याय है। इसलिए इसके त्याग देने में ही भलाई है।
हिन्दी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाईजी ईष्र्यालु व्यक्ति के स्वभाव के बारे में कहते हैं कि अपनी अक्षमता से पीड़ित बेचारा ईष्र्यालु आदमी दूसरे की सक्षमता के चाँद को देखकर सारी रात कुत्ते की तरह भौंकता रहता है। वह अपनी अग्नि में खुद जला हुआ होता है उसे और ज्यादा जलाना व्यर्थ है।
कटुता रखने से कटुता कभी खत्म नहीं होती, वैर से वैर ही बढ़ता है, कम नहीं होता। मनुष्य जब किसी के प्रति शत्रुता रखता है तो वह क्रोध में पागल हो जाता है। उसे न रात को नींद आती है और न दिन में चैन मिलता है। कटुता और वैर की आग में जलकर परिवार के परिवार नष्ट हो जाते हैं लेकिन दुश्मनी की आग फिर भी शान्त नहीं होती।
यदि आपके ऊपर कोई क्रोध करता है तो आप उसके ऊपर शान्ति कर शीतल जल डालिए, यदि कोई अहंकार से भरा हुआ आपके सामने आता है तो आप नम्रता भाव से उसे देखिए-उसके सामने सरलता का व्यवहार कीजिए। ऐसा करने से क्रोधी व्यक्ति का क्रोध और अभिमानी व्यक्ति का अभिमान दूर हो जाएगा।
मनुष्य को अपने कर्म और भाग्य पर भरोसा रखना चाहिए। यदि उसका कर्म अच्छा है अथवा भाग्य श्रेष्ठ है तो कोई चाहे कितने ही काँटे उसके जीवन-पथ में बोये उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।