जीओ और जीने दो
Jiyo aur Jeene Do
जिस व्यक्ति ने स्वयं सुख-सन्तोष और शान्ति से जीवन जीना सीखा है. वही दूसरों को सुख से जीवन जीने की प्रेरणा दे सकता है।
आज के मनुष्य का जीवन तो खुद ही कलह-क्लेश में बीत रहा है। भौतिक जगत् की भागदौड़ में हर कोई व्यक्ति तनावग्रस्त एवं दुःखी है। ऐसे व्यक्ति दूसरों । को सुख से जीने की प्रेरणा कैसे दे सकते हैं?
जो व्यक्ति स्वयं ईष्र्या, द्वेष आदि मनोविकारों से ग्रसित होगा, वह किसी अन्य व्यक्ति को कभी सुख से जीता देखना नहीं चाहेगा।
यदि हम अपने जीवन को आनन्द से बिताना चाहते हैं तो इसके लिए हम दूसरों को दैहिक तापों में न घसीटें, अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि न पहुँचाएँ-इसी में जीवन की सार्थकता है।
कुछ लोग बिन सीचे-समझे अपने घर का कूड़ा-करकट मकान के बाहर फेंक देते। हैं। इससे पड़ोसी व्यक्ति को तथा राहगीरों को कष्ट होता है। जब अपने घर के टी. वी. सैट की आवाज बुलन्द कर दी जाती है तो घर के अन्य सदस्यों को ध्वनि प्रदूषण से कष्ट होता है तशा आसपास के लोगों का भी चैन से बैठना मुश्किल हो जाता है।
जयशंकर प्रसादजी ने अपने ‘कामायनी’ महाकाव्य में श्रद्धा पात्र के माध्यम से कहा है-
औरों को हँसते देखो मनु हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो जीवन सफल बनाओ ॥
जीवन का आनन्द दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में नहीं बल्कि अपने सुख को दूसरों के साथ बाँटने में है।
शास्त्रों में दूसरों की कल्याण कामना से प्रभु से प्रार्थना की गई है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भावेत ।।
(सब सुखी हों, सबका कल्याण हो-सब जन नीरोग हों। कहीं कोई दुःखी न हो।)
भारतीय संस्कृति शुरू से ही सद्भावनापूर्ण रही है। यहाँ का मानव प्राचीनकाल से ही दूसरों के बारे में अच्छा सोचता रहा है। पिछले कुछ वर्षों में साम्प्रदायिकता, जात-पात, ऊँच-नीच की भावना तथा व्यक्तिगत अहम् से पीड़ित होकर भारतीय मानव जरूर दूसरों को दुःख या कष्ट पहुँचाने में आनन्द का अनुभव करने लगा। है। लेकिन यह कलियुग के बदलते हुए बुरे समय का प्रभाव है।
हम जीवन को जिस सुख और आनन्दमय जीवनशैली में जीना चाहते हैं, उसका अधिकार दूसरों को भी दें, यही जीवन जीने की अर्थपूर्ण कला समझी जाएगी।
महापुरुषों के जीवन में हमें महानता की यही सबसे बड़ी बात देखने को मिलती है। उनका जीवन निर्द्वद्व प्रकार का होता है। वे खुद तो सन्तोष से जीते ही हैं लेकिन दूसरों को भी सन्तोष और आनन्द से जीते हुए देखना चाहते हैं।
सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि यदि व्यक्ति अपने धर्म और अपने देश के हित के लिए जीता है तो यह उसके जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता है। हरे-भरे पेड़-पौधों का जीवन सदैव दूसरों के सुख के लिए होता है। गुलाब का पुष्प स्वयं भी हर्षित रहता है तथा अपने खिले हुए सुगन्धित रूप से दूसरों को भी प्रसन्नता पहुँचाता है।
‘जीओ और जीने दो’ का सिद्धान्त जीने की सबसे श्रेष्ठ कला है। यह जीवन जीने की सबसे सुन्दर शैली है। हम न स्वयं दुःखी हों और न दूसरों को दुःख देवें-यही सुखमय जीवन जीने का मन्त्र है।
कुछ लोगों को दूसरों को दुःख पहुँचाने में ही आनन्द मिलता है। वे किसी का हृदय दुःखाकर विशेष प्रसन्न होते हैं। कोई व्यक्ति ठोकर खाकर गिर गया। ठोकर खाने वाला आदमी दुःखी हो उठा लेकिन उसे देखकर एक आदमी प्रसन्न हो रहा है। किसी मजबूर आदमी को देखकर उस पर व्यंग्य कसने से आदमी को क्षणिक देर की प्रसन्नता भले ही मिल जाए लेकिन इसे हम सच्ची खुशी नहीं कह सकते।
जीवन का सच्चा आनन्द और सच्ची खुशी अपने साथ-साथ दूसरों को भी खुश रखने से मिलती है। जब तक हमारे मन में किसी के प्रति ईष्र्या और जलन है। तब तक हम न स्वयं खुश रह सकते हैं और न दूसरों को खुश रख सकते हैं।