जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान
Jab Aave Santosh Dhan Sab Dhan Dhoori Saman
विचारवान लोगों ने ठीक ही कहा है कि जब आवे संतोष धन, सब धन, सब धन धूरि समान’ अर्थात् जब व्यक्ति के पास संतोष रूपी धन आ जाता है तो सभी प्रकार के धन मिट्टी के समान प्रतीत होते हैं। किन्तु आजकल की दुनिया में तो देखने में आता है कि संतोष किसी को नहीं है। सौ रुपये पाने वाला हज़ार की कामना करता है और हजार पाने वाला लाखों की। लाखों का मालिक करोड़पति बनना चाहता है। पैसे की इस दौड़ में हम सभी एक-दूसरे को पछाड़ने लगे हैं। इसी दौड़ में हम ने सारे नियम, सिद्धान्त, शिष्टाचार ताक | पर रख दिये हैं। नैतिक मूल्यों का दिनों-दिन ह्रास होता जा रहा है। आज संत कबीर की तरह यह कहने वाला विरला ही मिलेगा-
साईं इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं साधू न भूखा जाय।।
वास्तव में संतोष एक मनोवृत्ति है। किन्तु मनुष्य का मन तो स्वभाव से चंचल है और नाना प्रकार की इच्छाओं की जन्मस्थली भी। जीवन में सब कुछ पा लेने पर भी मनुष्य का मन नहीं भरता। वह और पाने की इच्छा करता रहता है। इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह अच्छे-बुरे हर तरह के काम करता है। कहिए ऐसे में सन्तोष कहां से आए। आजकल क्या कोई ऐसा कहता नजर आता है-
रूखा सूख खाई कै ठण्डा पानी पी।
देखि वेगानी चुपड़ी मन तरसावै जी ॥
आज मानव जीवन में जितने भी दु:ख हैं उन में से अधिकतर संतोष की मनोवृत्ति के अभाव के कारण ही हैं। असन्तुष्ट व्यक्ति तथा अपनी इच्छाओं का गुलाम व्यक्ति अपने लिए ही नहीं अपने परिवार, समाज अथवा देश के लिए मुसीबतें खड़ी करने का कारण बनता है। चन्द सिक्कों के लिए अपने ईमान को बेचने को तैयार हो जाता है। देश से गद्दारी करने पर उतर आता है। इसके विपरीत संतोषी व्यक्ति दयालु, स्वावलम्बी और परोपकारी हुआ करता है। समय पड़ने पर जाति और देश पर सब कुछ बलिदान करने को हरदम तैयार रहता है। अतः निरंतर संघर्ष करते हुए व्यक्ति को संतोष का दामन नहीं। त्यागना चाहिए। क्योंकि संतोष न केवल परम धन है, परम धर्म भी है।