गुरुपर्व
Gurpurab
पंजाब में मनाए जाने वाले बहुत से त्योहारों में सिख-गुरुओं के जीवन से संबंधित “गुरुपर्व” सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। “गुरुपर्व” का शाब्दिक अर्थ है। “गुरुओं की स्मृति में उत्सव”। यह गुरुपर्व पंजाब के प्रत्येक गांव, कस्बे तथा शहर में बड़ी श्रद्धा-भावना तथा उत्साह से मनाए जाते है।
प्रमुख गुरुपर्व इस प्रकार हैं।
- प्रकाश उत्सव (जन्मदिन) श्रीगुरु नानकदेव जी,
- प्रकाश उत्सव (जन्मदिन) श्रीगुरु गोबिन्द सिंह जी,
- शहीदी दिवस श्रीगुरु अर्जुन देव जी, तथा
- शहीदी दिवस श्रीगुरु तेग बहादुर जी।
श्रीगुरु नानक देव जी सिखों के प्रथम गुरु हुए हैं। वह सिख-धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म कार्तिक सुदी 15 सम्वत् 1526 (20 अक्तूबर 1469 ईसवी) को रायभोय की तलवण्डी (ननकाणा साहिब) जो अब पाकिस्तान में है।में हुआ। था। उनकी माता का नाम तृप्ता जी तथा पिता का नाम मेहता कालूजी था। उनका विवाह 24 ज्येष्ठ मास सम्वत 1545 को बीबी सुलखणी जी के साथ बटाला (जिला गुरुदासपुर) में हुआ। उनके घर दो पुत्रों ने जन्म लिया। बाबा श्रीचन्द जी (सम्वत् 1551) तथा बाबा लक्ष्मीचंद जी (सम्वत् 1553)। पुत्रों में स्वाभिमान की प्रबल भावना को देखते हुए। श्री गुरु नानक देव जी ने अपनी गुरुगद्दी उन दोनों में से किसी को भी नहीं दी, अपितु यह गुरुगद्दी अपने एक शिष्य भाई लहणा (श्रीगुरु अंगददेव जी) को सौप दीवह अश्विन बदी 10, सम्वत् 1596 (22 सितम्बर 1539) को ज्योति में ज्योतिवत् लीन हो गए। उन्होने जाति-पाति, छुआछूत तथा अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाई। जनता को सारहीन भ्रमों और भ्रान्तियों से मुक्त किया। उन्होंने समस्त संसार को परस्पर प्रेम, भाईचारे तथा नम्रतापूर्वक रहने का उपदेश दिया। उनकी पवित्र वाणी “श्री गुरु ग्रंथ साहिब” में संकलित है।)
श्रीगुरु गोबिंद सिंह सिक्खों के दसवें गुरु हुए हैं। उनका जन्म पौष सुदी 7 सम्वत् 1723 (22 दिसम्बर 1666 ) को पटना साहिब (बिहार) में सिक्खों के नौवें गुरु श्रीगुरु तेगबहादुर जी के घर माता गुजरी जी की कोख से हुआ। जब वह केवल नौ वर्ष के थे तो कश्मीर प्रांत से कुछ पंडित उनके पिता श्रीगुरु तेगबहादुर जी के पास आनंदपुर साहिब (जिला रोपड़) में आए, जहां गुरुजी उस समय ठहरे हुए। थे। उन दिनों मुगल साम्राज्य के अत्याचार की आंधी अपने पूरे वेग पर थी। हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया जा रहा था। अनेक हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया गया था।
हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों, मंदिरों आदि का अनादर किया जा रहा था। कश्मीरी पंडितों ने एकत्र होकर श्री गुरु तेगबहादुर जी के समक्ष प्रार्थना की कि वह उनको मुगलों के अत्याचार से बचाने के लिए उपाय करें। गुरुजी ने गहरी सोच-विचार के पश्चात् कहा, “इस अत्याचार की ज्वाला को शांत करने के लिए इस समय किसी महान पुरुष के बलिदान की बड़ी आवश्यकता है। श्रीगुरु गोबिन्द सिंह, जो समीप बैठे सब कुछ सुन रहे थे, ने पिताजी को तत्काल सुझाव दिया कि “आपसे अधिक महान पुरुष दूसरा कौन हो सकता है।” इस प्रकार श्री तेगबहादुर जी ने दिल्ली में “शीशगंज साहिब” में धर्म तथा देश के लिए आत्म-बलिदान दे दिया। श्रीगुरु गोबिन्द सिंह ने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष को जारी रखा। उन्होंने मुगल साम्राज्य के अत्याचारों से टकराने के लिए “खालसा पंथ की स्थापना की। मुगलों के साथ युद्ध में ही उनके चारों साहिबजादे शहीद हो गए। उन्होंने श्रीगुरु नानकदेव जी से चली आ रही सिख-गुरु परम्परा को स्वयं पर समाप्त कर दिया तथा सम्पूर्ण सिक्ख सम्प्रदाय को आदेश दिया कि “भविष्य में ‘श्रीगुरु ग्रंथ साहिब’ (गुरुओं तथा अन्य हरि-भत्ते की वाणी का संग्रह) को ही अपना गुरु माने‘श्रीगुरु ग्रंथ साहिब’ के रूप में ‘साक्षात जगदगुरु’ इस धरती पर विराजमान हैं।”
श्रीगुरु अर्जुन देव जी सिक्खों के पांचवे गुरु हुए हैं। उनका जन्म वैशाख बदी 7 सम्वत् 1620 (15 अप्रैल – 1563) को गोबिंदबाल में श्री गुरु रामदास सिक्खों के चौथे गुरु जी के घर माता भानी की कोख से हुआ था। उनका विवाह माओ (फिल्लौर) गांव में श्री किशनचन्द जी की सुपुत्री बीबी गंगा के साथ हुआ। सन् 1595 को उनके घर श्री गुरु हरिगोबिंद राय ने जन्म लिया। जो बाद में सिक्खों के छठे गुरु बने। अमृतसर में तीसरे गुरु श्रीगुरु अमरदास द्वारा आरंभ किए गए अमृतसरोवर के निर्माण-कार्य को सम्पूर्ण करके उसके मध्य “हरिमन्दिर साहिब” (स्वर्ण मंदिर अथवा गोल्डन टेम्पल) की स्थापना करवाई। सन् 1590 में आपने तरनतारन साहिब (जिला अमृतसर) के हरिमन्दिर का निर्माण करवाया। (श्री गुरु अर्जुन देव जी ने गुरुओं तथा अन्य हरिभक्ते की वाणी एकत्रित करके ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ का संपादन किया। इस ग्रंथ में भारत के विभिन्न प्रांतों में बसने वाले भिन्न-भिन्न जातियों के अनेक भक्ते की वाणी भी दर्ज है। इस प्रकार यह पवित्र ग्रंथ संसार भर में धर्म-निरपेक्षता की एक अनुपम कृति है। यह पवित्र ग्रंथ, परस्पर प्रेम, सुहृदयता और एक परब्रह्म में आस्था रखने का संदेश प्राणि मात्र को पहुंचाता है। इस पवित्र ग्रंथ का संपादन करके श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने समूची मानवता के प्रति एक महान् उपकार किया है। लाहौर के शासक चन्दूमल क्षत्रिय ने मुगल सम्राट जहांगीर की आड़ लेकर उन्हें घोर यातनाएं दीं। उन्हें गर्म तवी पर बिठाने के साथ-साथ गर्म रेत सिर पर डाली गई। 4 सम्वत 1663 (30 मई 1606) को वह रावी नदी में अन्तर्धान हो गए।
श्री गुरु तेगबहादुर जी सिक्खों के नौवें गुरु हुए हैं। उनका जन्म श्री गुरु हरिगोबिंद राय जी के घर माता नानकी जी की कोख से 5 सम्वत् 1678 (पहली अप्रैल 1621) को अमृतसर में गुरु के महल में हुआ। उनका विवाह श्री लालचन्द जी की सुपुत्री बीबी गुजरी जी के साथ करतारपुर में हुआ। जिनकी कोख से 1006 में श्रीगोबिन्द राय ने जन्म लिया। यह श्री गोबिन्द राय ही बाद में सिक्खों के दशम गुरु, श्रीगुरु गोबिंद सिंह जी हुए। ।
श्रीगुरु तेगबहादुर जी के समय में मुगल साम्राज्य ने हिन्दुओं पर अकथनीय अत्याचार किएकश्मीरी पण्डितों की ओर से प्रार्थना किए जाने पर उन्होंने चांदनी चौक, दिल्ली में देश, कौम तथा धर्म हेतु अपना शीश अर्पण कर दिया। गुरुओं के प्रति श्रद्धा-भावना प्रकट करने के लिए पंजाब के कोने-कोने में ‘गुरुपर्व’ अत्यधिक निष्ठा तथा धूम-धाम के साथ मनाए जाते हैं। इस अवसर पर गुरुद्वारों में ‘श्रीगुरुग्रंथ साहिब’ के ‘अखण्ड-पाठ’ (अविराम-पाठ) किए जाते हैं। गुरुपर्व से एक दिन पूर्व नगर कीर्तन (शोभा यात्राएं) आयोजित किये जाते हैं। निहंग सिक्ख गत्तकाबाजी (तलवारबाजी) के करतब दिखाते हैं। गुरुद्वारों तथा अन्य कई स्थानों पर गुरु का लंगर (निःशुल्क अन्न-जल) चलाया जाता है। श्रीगुरु अर्जुन देव जी के शहीदी दिवस के अवसर पर जो कि ग्रीष्म ऋतु (ज्येष्ठ-मास) में पड़ता है।शीतल और मीठे जल की छबीलें (प्याऊ) भी लगाई जाती हैं।