गंगा सागर का मेला – पश्चिम बंगाल
Ganga Sagar Ka Mela – Pashchim Bandal
गंगा सागर शब्द से ही यह प्रकट होता है। वह स्थान जहाँ गंगा सागर से मिलती हैं। सचमुच यही बात है। हिमालय में गोमुख से निकलने के पश्चात् गंगा जी सहस्त्रों मील तक दौड़ती हुई बंगाल की खाड़ी में पहुँचती हैं और सागर से मिलकर उसी में समा जाती हैं। बड़ा ही भावमय और मनोरम दृश्य है। गंगा का समुद्र से मिलन। ऐसा प्रतीत होता है। मानों जीव ब्रह्म से मिलकर उसमें समा रहा हो अथवा कोई व्याकुल भक्त अपने आराध्य देव का गुणगान करता हुआ उसके भीतर समा गया।
एक ओर समुद्र का गर्जन और दूसरी ओर गंगा जी का कलकल स्वर समुद्र के भैरव गान में गंगा जी का मधुर संगीत विलीन हो जाता है। समुद्र के भैरवपन को छोड़ कर और कुछ नहीं रह जाता।
किसी दिन समुद्र ने वीत रागी कपिल मुनि के मन को भी मुग्ध कर लिया था। वे संसार को छोड़कर, वहीं चले गये थे, और वहीं आश्रम बनाकर रहने लगे और तप करने लगे थे। उन्होंने अखंड तप करके महान् सिद्धियाँ प्राप्त की थी। कहते हैं, उनकी कुपित दृष्टि से अग्नि की ज्वाला निकलती थी।
उस ज्वाला में मनुष्य, पशु और पक्षियों की तो बात ही क्या, पर्वतों को भी पिघला देने की महाशक्ति छिपी हुई थी, पर उन दिनों गंगा जी नहीं थी। केवल समुद्र ही समुद्र था। दिन-रात समुद्र का भैरव सगीत कपिल मुनि के कानों में गूंजा करता था। उन्होंने उसी संगीत की सीढ़ियों पर चढ़ कर अपने तप को पूर्ण किया था और महा-सिद्धि प्राप्त की थी।
गंगा जी किस प्रकार गोमुख से निकल कर बंगाल की खाड़ी में पहुँच कर सागर से मिलीं-इस सम्बन्ध में एक बड़ी ही सुन्दर और प्रेरक कथा है। युगों पूर्व की बात है। भारत-धरा पर एक प्रतापी नृपति राज्य करते थे-सगर। सगर के साठ सहस्त्र पुत्र थे। उनका राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। कहा जाता है। सगर के राज्य में सिह और गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे।
सगर के प्रताप और शौर्य को देख कर ऋषियों ने उन्हें अश्वमेघ यज्ञ करके चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त करने की सम्मति दी। ऋषियों की आज्ञा से यज्ञ का श्वेत अश्व छोड़ा गया। अश्व की रक्षा के लिये सगर के साठ सहस्त्र पुत्र उसके पीछे-पीछे चले।
अश्व इस राज्य से उस राज्य में घूमने लगा। किसी भी राजा को अश्व को पकड़ने का साहस नहीं होता था। सगर के शौर्य ने सब के मन में भय और आतक पैदा कर दिया था।
देवराज इन्द्र के मन में आशंका उत्पन्न हो उठी। उन्होंने सोचा, यदि सगर का अश्वमेघ यज्ञ को पूर्ण नहीं होने देना चाहिये। यज्ञ पूर्ण हो गया, तो कहीं ऐसा न हो कि वे इन्द्र लोक पर ही आक्रमण कर दें। अतः देवराज इन्द्र ने यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने के लिये अश्व को चुरा लिया। अश्व को चुरा कर वे उसे उसी स्थान पर बाँध गये, जहाँ (बंगाल की खाड़ी में) मुनि तप कर रहे थे।
अश्व को चुराये जाने पर सगर के पुत्र उस की खोज करने लगे। वे अश्व की खोज करते हुए। (बंगाल की खाड़ी में) कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे। उन्होंने आश्रम के बाहर अश्व को बँधा हुआ। देख कर, सोचा, हो न हो, इन्हीं मुनि ने अश्व को चुरा कर उसे यहाँ बाँध रखा है। उन्हें अपने बल का बड़ा मद था। वे तप में संलग्न कपि मुनि के प्रति अपशब्द निकालने लगे। उनके तप में विध्न उत्पन्न करने लगे।
कपिल मुनि कुपित हो उठे। तप भंग हो गया। उन्होंने कुपित नेत्रों से सगर के पुत्रों की ओर देखा। उनके नेत्रों से अग्नि की ज्वाला निकल पड़ी। सगर के सभी पुत्र उसी ज्वाला में जलकर भस्म हो गये, और भस्म की ढेरी के रूप में परिवर्तित हो गये।
जब सगर के पुत्र बहुत दिनों तक लौट कर नहीं आये और उनका कुछ पता भी नहीं चला, तो सगर चिन्तित हो उठे। उन्होंने अपने पौत्र अंशुमान को उनका पता लगाने के लिये भेजा।
अंशुमान अपने पिता और पितृव्यों की खोज करते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे। उन्होने भी वहाँ अश्व को बँधा हुआ देखा। कपिल मुनि को तप में संलग्न और देखा। अशुमान बड़े विनयी और विनम्र थे। वे कपिल मुनि की प्रार्थना करने लगे। उनके गुणों का गान करके उनके हृदय में दया उत्पन्न करने लगे।
कपिल मुनि प्रार्थना से प्रसन्न हुए। उन्होंने दृष्टि उठा कर दया भाव से अशुमान की ओर देखते हुये कहा-तुम्हारे पिता और तुम्हारे संबंधी अपनी ही कुटिलता के कारण भस्म की ढेरी बन गये हैं। भस्म का यह ढेर उन्हीं का है। जब तक गंगा जी स्वर्ग से धरती पर नहीं आयेगी और यहाँ तक नहीं आयेगी, तब तक यह भस्म का ढेर इसी प्रकार बना रहेगा।
अंशुमान ने गंगा जी को स्वर्ग से धरती पर लाने के लिये बड़ा प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई।
कई पीढ़ियों के पश्चात् अंशुमान के वंश में भगीरथ का जन्म हुआ। भगीरथ बड़े जापा, शूरवीर और तेजस्वी थे। उन्हें जब अपने पूर्वजों की कहानी ज्ञात हुई, तो उन्होंने उनकी मुक्ति के लिये गंगा जी को धरती पर लाने का दृढ़ संकल्प किया।
भगीरथ हिमालय के क्षेत्र में जाकर तप करने लगे। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने गंगा जी को धरती पर जाने का आदेश दिया, पर गंगा जी बोली-जब मेरी प्रचंड धारा स्वर्ग से धरती पर गिरेगी, तो धरती फट जायेगी और मेरी धारा पाताल में समाविष्ट हो जायेगी। आवश्यकता इस बात की है। जब मेरी धारा धरती पर गिरे, तो कोई उसके वेग को संभाल सके।
भगीरथ ने गंगा की धारा के वेग को संभालने के लिये शिवजी का तप किया। तप से शिवजी प्रसन्न हुए। भागीरथ की इच्छानुसार गंगा की धारा के वेग को संभालने के लिये उद्यत हो गये।
शिवजी कैलाश में वीरवेष में खड़े हो गये। गगा की धारा हर-हर निनाद करती हुई स्वर्ग से चली और शिवजी के सिर पर गिरकर उनकी जटाओं में समा गई। शिवजी की जटाये गंगा जी को इतनी सुन्दर लगी कि, उनका मन उन्हीं में रम गया। भगीरथ चिन्तित हो उठे, उन्होंने पुनः शिवजी का तप किया। शिवजी ने प्रसन्न हो कर गंगा जी को अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया।
गंगा जी हरप्रिया के रूप में गोमुख से निकल पड़ी, हर-हर शब्द करती हुई प्रवाहित हो उठी। पत्थरों को तोड़ती हुई, शिलाओं को ढकेलती हुई और वृक्षों को गिराती हुई आगे की ओर चल पड़ी। मार्ग में जल्लमुनि तप में लीन थे। गंगा जी अपनी प्रचंड धारा में उनके कमडल और मूग चर्म आदि को बहा ले गई। मुनि कृद्ध हो उठे। उन्होंने गंगा जी को अजलि में भरकर उदरस्थ कर लिया। भगीरथ पुनः चिन्तित हो उठे।
उन्होंने जह्वमुनि की प्रार्थना की, उनके गुणों का गान किया। मुनि ने प्रसन्न हो कर गंगा जी को उदर से बाहर निकाल दिया। गंगा जी जह्वतनया के रूप में हर-हर शब्द करती हुई प्रवाहित हो उठी और हजारों मील की दूरी तय करती हुई कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई और सगर के पुत्रों की भस्म की ढेरी को अपने जल में मिलाती हुई बंगाल के सागर में जा मिली। सागर के पुत्रों का उद्धार तो हो ही गया। वह स्थान भी पावन और कपिल मुनि का तीर्थ-स्थल बन गया।
इसी पवित्र घटना की स्मृति में गंगा और सागर के संगम स्थल पर बहुत बड़ा मेला लगने लगा मेला, युगों पूर्व जो बात हुई थी। वह आज भी होती है। आज भी गंगा और सागर संगम स्थल पर बहुत बड़ा मेला लगता है। उसी मेले को गंगा सागर का मेला कहते हैं।
सर्दी के दिनों में जब कड़ाके की ठंड पड़ती है और हाथ-पैर काँपते रहते हैं। तो नर-नारी गंगा और सागर के संगम स्थल पर एकत्र होते हैं। वे उत्तर भारत के भी होते हैं। उत्तर-पूर्वी भारत के भी होते हैं और पश्चिमी भारत के भी। वे हिन्दी बोलनेवाले भी होते हैं और गुजराती, मराठी, तमिल, तेलगु तथा पंजाबी बोलने वाले भी होते हैं। सभी एक साथ संगम में डुबकियां लगाते हैं। कपिल मुनि के मदिर में मस्तक टेकते हैं। एकता का वह अनुपम दृश्य देखते ही बनता है। न कोई पजाबी रहता है, न कोई मद्रासी, न कोई बंगाली रहता है और न कोई गुजराती या मराठी। सभी भारतीय रहते हैं, केवल भारतीय।
बंगाल के सागर की भीषण लहरे युगों से कपिल मुनि के मंदिर से टकराती चली आ रही हैं। लहरें मंदिर को कुछ क्षति पहुँचा सकेंगी-मैं तो इस बात को सोच भी नहीं सकता, क्योंकि मदिर की नींव के नीचे कपिल मुनि की वज सरीखी हड्डियाँ हैं। पर मानव-मन बड़ी शंकालु होता है। कदाचित् इसीलिये नये मंदिर के निर्माण की व्यवस्था की जा रही है। जो भी हो, मंदिर और स्थान की पवित्रता युगों तक लक्ष-लक्ष नर-नारियों को अपनी ओर आकृष्ट करती रहेगी।