दशहरा का मेला – कर्नाटक
Dussehra ka Mela – Karnataka
हमारे देश में दशहरा का मेला प्रायः सभी स्थानों में लगता है। आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही रामलीला प्रारंभ हो जाती है। नौ दिनों तक राम कथा के आधार पर रामलीलायें होती हैं। दसवीं तिथि के दिन संध्या समय रावण का वध किया जाता है। रावण को दशानन भी कहते हैं। यही कारण है कि दसवीं तिथि को दशहरा के नाम से संबोधित किया जाता है। इसी दिन राम ने अपने बाणों से रावण के दसों सिरों का उच्छेदन किया था।
अनेक स्थानों में दशहरा के दिन बहुत बड़ा मेला लगता है। उस मेले में सभी जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोग सम्मिलित होते हैं। हिन्दू तो सम्मिलित होते ही हैं। मुसलमान, सिख और ईसाई भी सम्मिलित होते हैं। मेले में बहुत बड़े जुलूस के साथ राम की सवारी निकाली जाती है। सवारी के साथ अन्य बहुत सी झाँकियाँ भी होती हैं। जो राम कथा के आधार पर बनाई जाती हैं। झाँकियों को बनाने और सजाने वालों में हिन्दू-मुसलमान सभी होते हैं।
यों तो सभी स्थानों का दशहरा का मेला अपने आप में भव्य होता है। पर मैसूर में दशहरा का जो मेला लगता था। वह बड़ा अनूठा और नयनाभिराम होता है। लोगों का कहना है। दशहरा का जैसा मेला मैसूर और कुल्लू में लगता था। वैसा मेला भारत में कहीं नहीं लगता था। मैसूर और कुल्लू का मेला सुन्दर तो होता ही था। मेले में देश के दूसरे भागों के लोग भी सम्मिलित होते थे।
मैसूर के मेले में लाखों लोग सम्मिलित होते थे। मेले में बहुत बड़ा जुलूस निकाला जाता था। मैसूर के राजा हाथी पर सवार रहते थे। उनके हाथी के पीछे बहुत से हाथी होते थे, जो जनता के होते थे। सभी हाथी रेशमी वस्त्रों और आभूषणों से सज्जित होते थे। हाथियों के मस्तक अनेक रंगों से चित्रित किये जाते थे। हाथियों के सवार भी सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से सजे होते थे। जुलूस में रंग-बिरंगी झाँकियाँ भी होती थी। जो कर्नाटक के इतिहास और सांस्कृतिक कथाओं के आधार पर बनाई जाती थी। झाँकियों को बनाने और सजाने में हिन्दुओं, मुसलमानों सभी का योग होता था।
जुलूस में जनता तो सम्मिलित होती थी।बहुत से दरबारी भी सम्मिलित होते थे। दरबारियों की पोशाक अलग ढंग की होती थी। वे धोती और काले रंग का कोट पहने हुए होते थे, सिर पर कर्नाटकी पगड़ी रहती थी। वे अपने निराले वेश से ही पहचान लिये। जाते थे।
जुलूस जिन मार्गों से होकर जाता था।, उन मार्गों को भी खूब सजाया जाता था। जगह-जगह फाटक और द्वार बनाये जाते थे। फाटकों और द्वारों को भी बन्दनवारों, फूल मालाओं तथा चित्रों से सजाया जाता था। मार्ग में पड़ने वाले मकान भी फूल मालाओं और बन्दनवारों से सजे होते थे। मकानों के दरवाजों पर रंगोली सजायी जाती थी। तात्पर्य यह कि मार्गों और घरों को उसी प्रकार सजाया जाता था।, जिस प्रकार नववधू को सजाया जाता है।
मीलों का मार्ग तय करने के पश्चात् जुलूस मैदान में पहुंचता था। मैदान में रामलीला की विधि सम्पन्न की जाती थी। उत्साह और आनन्द का अद्भुत सागर उमड़ पड़ता था। उस सागर में जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के भेद डूबे हुए से दिखाई पड़ते थे।
पर जब से राजा-महाराजाओं के प्रीवीपर्स समाप्त हुए हैं। मैसूर का दशहरे का मेला फीका पड़ गया है। मैसूर के भूतपूर्व महाराजा अब मेले में पहले की तरह रूचि नहीं लेते, अब वे हाथी पर सवार हो कर नहीं निकलते। वे धन अवश्य देते हैं, पर मेले में भाग उसी तरह लेते हैं। जिस तरह जनसाधारण भाग लेता है।
अब झाँकियों में भी परिवर्तन हो गया है। पहले केवल ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कतिक झाँकियों ही सजाई जाती थी। पर अब राजनीतिक और सामाजिक झाँकियाँ ही सजाई जाती हैं। यद्यपि समय के परिवर्तन के कारण मैसूर के दशहरे की रंगत भी बदल गई है। पर फिर भी मेला अपने आप में बड़ा अनूठा होता है। मेले के दिन ऐसा लगता है। मानों मैसूर में एकता की गंगा प्रवाहित हो उठी हैं। हर कंठ से राम का जयनाद, भारत माता का जयनाद। उस तुमुल जयनाद में धर्मों, जातियों और सम्प्रदायों के भेदों का स्वर डूब ही नहीं जाता, अपितु विलीन हो जाता है।