धर्म और विज्ञान
Dharam Aur Vigyan
धर्म मनुष्य की व्यक्तिगत धारणा का नाम है। इसका सम्बन्ध मनुष्य के हटा से होता है। विज्ञान की क्रियाएँ मानव के दिमाग, तर्क, बुद्धि या मस्तिष्क से सम्बन्धित होती हैं।
आइन्स्टीन कहते हैं-“धर्म के बिना विज्ञान लँगड़ा है और विज्ञान के बिना धर्म अन्धा है।” विज्ञान बाहरी वस्तुओं की खोज-बीनकर उनके सम्बन्ध में नए-नए निष्कर्ष निकालता है जबकि धर्म अन्तर्गत अथवा आध्यात्मिक जगत् की वस्तुओं पर सबसे पहले गौर करता है। विज्ञान ने बताया है कि मनुष्य का शरीर किन-किन तत्त्वों के संयोग से और किस प्रक्रिया द्वारा बना जबकि धर्म शरीर के विषय में मौन रहकर व्यक्ति की आत्मा के सम्बन्ध में चर्चा किया करता है।
विज्ञान बताता है कि संसार की भौतिक वस्तुएँ किस-किस प्रकार से बनीं, ग्रह-नक्षत्र इत्यादि कैसे बने जबकि धर्म मनुष्य के सदाचार, नियम-संयम, सद्गुण, सत्संग और ईश्वर प्रेम आदि के विषय में बताता है। धर्म का सम्बन्ध जगत् की स्थूल या दृश्य चीजों से कम लेकिन अदृश्य और सूक्ष्म चीजों से ज्यादा होता है।
(विज्ञान धर्मग्रन्थों या मनगढंत लिखी हुई पुस्तकों पर विश्वास नहीं करता। धर्मस्थापकों और पीर-पैगम्बरों के ऊपर भी विज्ञान कम विश्वास करता है। वह उन चीजों को मानता है जो चीजें धर्म की दृष्टि में नगण्य हैं जबकि धर्म उन चीजों का अस्तित्व स्वीकार करता है, जो चीजें विज्ञान की दृष्टि में नगण्य हैं।
उदाहरण के तौर पर मनुष्य के शरीर को ही लीजिए। धर्म में मनुष्य के शरीर का महत्त्व उतना नहीं जितना की मनुष्य की भावना का है। विज्ञान मानव की भावनाओं को कुछ नहीं समझता। कारण यह है कि भावनाएँ शरीर की भाँति स्थूल नेत्रों से दिखाई नहीं देतीं।
विज्ञान में उन चीजों का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है, जो चीजें स्थूल आँखों से दिखाई देती हैं। जो चीजें नग्न नेत्रों से नजर नहीं आती या जिनको भौतिक साधनों की माप-तौल के जरिए सिद्ध नहीं किया जा सकता, विज्ञान उन चीजों को नहीं मानता।
विज्ञान की दृष्टि में जगत् के पेड़-पौधों का अस्तित्व है क्योंकि वे चर्म चक्षुओं से दिखाई देते हैं। उन्हें पकड़ा या छुआ जा सकता है। इसी तरह मनुष्य के शरीर का तथा अन्य जीव-जन्तुओं के शरीरों का अस्तित्व विज्ञान की दृष्टि में है क्योंकि वे सब शरीर दिखाई देते हैं। उनका आकार होता है और भार होता है। किसी चीज का भार या आकार विज्ञान की दृष्टि में अस्तित्व मानने का सबसे बड़ा प्रमाण है। परन्तु जीव-जन्तुओं और मनुष्यों के शरीर में कोई चेतन शक्ति, आत्मा भी रहती है-इस बात को विज्ञान मानने के लिए तैयार नहीं है। कारण यह है। कि विज्ञान भौतिक ऊर्जा तथा भौतिक तत्त्वों के सहारे चलता है जबकि जीवात्मा के एक आशाकृत तथा अभौतिक सत्ता होती है। भौतिक तत्त्व या भौतिक ऊर्जा से उसका दूर-दूर का भी सम्बन्ध नहीं होता है।
धर्मान्धता और धार्मिक अन्धविश्वासों के कारण मनुष्य कई तरह के भ्रम संशयों का शिकार हो जाता है। जबकि विज्ञान अंपनी तटस्थ दृष्टि, तथा विवेकपूर्ण निर्णय से सभी प्रकार के अन्धविश्वासों को दूर करता है।
धर्म और विज्ञान-दोनों ही मनुष्य के लिए मंगलकारी वरदान हैं। धर्म ने जहाँ मनुष्य के मन को शान्ति प्रदान की है, वहीं विज्ञान ने अपने नए-नए अविष्कारों के जरिए मानव को जीने की अनेक सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं।
कुछ लोग विज्ञान और धर्म का सम्बन्ध शरीर और आत्मा की तरह मानते हैं। जिस तरह आत्मा को शरीर से अलग नहीं किया जा सकता उसी तरह धर्म को विज्ञान से अलग नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि में विज्ञान शरीर की तरह है तथा आत्मा उस विज्ञानरूपी तन में विराजमान धर्म है। मानवता का आन्तरिक रूप यदि धर्म है तो उसका बाह्यरूप विज्ञान है। वैसे भी मानव का शरीर विभिन्न प्रकार की भौतिक एवं रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप निर्मित होता है।
यदि धर्म मानवता के नेत्र माने जाएँ तथा विज्ञान उसके चरण माने जाएँ पता का यह रूपक बड़ा ही सुन्दर एवं कल्याणकारी समझा जाना चाहिए। ग या चरण के कोई भी व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं जा सकता। इसी प्रकार नेत्रों के अभाव में व्यक्ति अन्धा होता है। जब से विज्ञान कास हुआ है तब से मनुष्य ने मानवता अथवा मानव-कल्याण के क्षेत्र में बड़ी ही प्रगति प्राप्त की है। धर्म में मनुष्य के सही और गलत की पहचान कर की आँखें हैं। धर्मरूपी नेत्र के अभाव में मनुष्य की प्रगति की दौड़ अन्धी मार्ग जानी चाहिए।
विज्ञान और धर्म दोनों मिलकर ही मनुष्य की मानवता को सही ठिका तक ले जाते हैं।
विज्ञान बाह्यजगत् की आधारशिला पर स्थित जिज्ञासा के प्रासाद में बैठकर सत्य की खोज करता है, वहाँ धर्म अन्तर्जगत् में प्रतिष्ठित होकर सत्य का साक्षात्कार करता है। इस तरह धर्म और विज्ञान-दोनों ही सत्य पर आधारित हैं।
मानव की जिज्ञासारूपी वृक्ष की एक शाखा यदि धर्म है तो दूसरी शाखा विज्ञान है। इन दोनों शाखाओं का फल एक ही है और वह फल है-‘सत्य की उपलब्धि।
धर्म के विकृत रूप ने जहाँ पाखण्ड और अन्धविश्वास को जन्म दिया, वहीं विज्ञान के विकृत स्वरूप ने मानव के विनाशकारी उपकरणों का निर्माण किया और मानव-जगत् की उन्नति एवं खुशहाली के लिए ये दोनों ही चीजें हानिकारक हैं
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जो कि भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति तथा महान् दार्शनिक रह चुके हैं-धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध में लिखते हैं–
“…वैज्ञानिक स्वभाव अपनी अविश्रान्त बौद्धिक जिज्ञासा, किसी भी चीज को केवल विश्वास पर स्वीकार करने में हिचकिचाहट तथा सन्देह करने की शक्ति के कारण ही सम्पूर्ण कृत्यों एवं प्रयोगों को आगे बढ़ाता रहा है। वह किसी विचार को बिना निरीक्षण परीक्षण के एवं बिना आलोचना के स्वीकार नहीं करता। वह प्रश्न करने और मान्यताओं पर सन्देह करने में स्वतन्त्र है जबकि धर्म में पूर्वाग्रह है। विज्ञान किसी सर्वाधिकारवादिता पर आश्रित नहीं है, बल्कि ऐसे दृष्ट प्रमाण की ओर इंगित करता है जिनका मूल्यांकन कोई भी प्रशिक्षित मस्तिष्क कर सकता है। विज्ञान, चिन्तक एवं जिज्ञासा की स्वतन्त्रता के बीच किसी भी प्रतिबन्ध को स्वीकार नहीं करता। वह नवीन ज्ञान और नवीन अनुभव का स्वागत करता है। एक सच्चा वैज्ञानिक कभी भी पूर्वाग्रह या अन्धश्रद्धा का आश्रय नहीं लेता।”