Hindi Essay on “Dharam Aur Rajniti”, “धर्म और राजनीति”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

धर्म और राजनीति

Dharam Aur Rajniti

 

 

जीवन को चलाने वाले श्रेष्ठ सिद्धान्तों के समूह को ‘धर्म’ कहा जाता है। धर्म मनुष्य के सारे व्यावहारिक क्रियाकलापों को एक संगतिपूर्ण अर्थवत्ता में दालता है। व्यक्ति के सहज स्वभाव तथा उसके कर्तव्य को भी ‘धर्म’ कहा जाता है।

राज्य-प्रशासन चलाने की नीति या पद्धति को ‘राजनीति’ कहा जाता है।

राजनीति और धर्म मानव के सामाजिक जीवन के जरूरी तत्त्व हैं। धर्म से राजनीति को पोषण (शक्ति) मिलता है जबकि धर्म राजनीति से विकास की शक्ति प्राप्त करता है। ये दोनों क्षेत्र एक-दूसरे को नया जीवन देने वाले हैं।

धर्म अपने आप में निष्कलंक और निर्द्वन्द्व छवि वाली वस्तु है। यह मनुष्य की पालन एवं मंगलकारी धारणाओं का नाम है परन्तु राजनीति के कुछ घृणित तथा विवादास्पद व्यक्ति धर्म को साम्प्रदायिकता तक ले जाने का प्रयत्न करते हैं। कुछ सत्तालोभी व्यक्ति धर्म को राजनीति से अलग करने का प्रयत्न करते हैं। वे राजनीति को धर्मसम्मत आधार से न चलाकर अपनी भ्रष्ट राजनीतिक मान्यताएँ साम्प्रदायिक भावनाओं के ऊपर थोप देते हैं।

मानव जीवन को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता। सम्पूर्ण मानव जीवन ही धर्म के मौलिक सिद्धान्तों के ऊपर टिका हुआ है। यदि धर्म को मनुष्य से अलग किया गया तो मनुष्य शक्तिहीन हो जाएगा। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी आदि सभी सम्प्रदाय के लोग जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने-अपने धर्म के सिद्धान्तों को मानते हैं और उन सिद्धान्तों का उल्लंघन करने में बड़ा पाप या दोष समझते हैं।

निर्मल वर्मा कहते हैं

“धर्म एक ऐसा भावबोध है जिसमें मनुष्य की अन्तश्चेतना, उसकी कॉन्शस, उसकी अन्तरात्मा वास करती है। मनुष्य का मजहब, रिलीजन, विश्वासतन्त्र कुछ भी क्यों न हो, वह एक पतली डोर से इस भावबोध, इस अन्तश्चेतना के साथ जुड़ा रहता है। इस डोर का एक सिरा मनुष्य की आत्मा के साथ जुड़ा है, दूसरा दुनियावी लोक के साथ। इन दोनों सिरों के बीच फैले तन्तुजाल से मनुष्य की लोक, परलोक, उसकी लौकिक मर्यादाएँ और अलौकिक आस्थाएँ, उसका धर्म-कर्म, उसका नैतिक विवेक मन, राज्य समुदाय के साथ इसके सम्बन्ध अन्तर्निहित होते हैं। जब हम उसकी राजनीति में धर्म को अलग करने की बात करते हैं तो वस्तुतः हम इस डोर को बीच में से को डालते हैं, जिसका घातक परिणाम यह होता है कि एक छोर पर उसकी आत्मा नीतिशून्य हो जाती है और दूसरे छोर पर उसकी राजनीति आत्मशून्य।”

राजनीति तो कुशलता के साथ राज्य और प्रशासन चलाने की कला । का नाम है। यह अपने आप में भ्रष्ट नहीं है किन्तु आज इसे कुछ स्वार्थी और भ्रष्ट राजनेताओं ने भ्रष्ट बना दिया है। राजनीति को चलाने के लिए श्रेष्ठ बुद्धि तथा उत्तम विवेव की आवश्यकता होती है। वह यथार्थ विवेक बुद्धि आज के नेताओं के पास नहीं है। नेता देश की जनता का प्रतिनिधि होता है और उसका फर्ज है-जनता की दुःख-तकलीफें सुनकर उनको दूर करने का उपाय करना।

लेकिन आज के नेता लोग तो जनता का दुःख हरने के बजाय उनको लूटने में लगे हुए हैं। नेताओं की भ्रष्ट नीतियों के चलते राजनीति आज षड्यन्त्रों और कुचक्रों का शिकार हो गई है।

हमारे देश में सच्चे रूप से तभी खुशहाली आएगी जब यहाँ का शासन और प्रशासन स्वच्छ किस्म का होगा। कहीं कोई छलछिद्र या धोखा फरेब न होगा। मानव मानव के ऊपर विश्वास करेगा और इसी विश्वास के सहारे सृष्टि का संचालन होगा।

जहाँ का राजा धार्मिक एवं न्यायकारी होता है, वहाँ प्रजा भी सुख चैन की स्थिति में होती है।

महात्मा गाँधीजी राजनीति को धर्म के साथ ही देखना चाहते थे। वे कल्पना में भी धर्म को राजनीति से भिन्न नहीं मानते थे। इसी प्रकार महर्षि अरविन्द राष्ट्रवाद को राजनीति न मानकर धर्म मानते थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे। कि यदि धर्म को त्यागकर केवल राजनीति को ही मनुष्य अपने जीवन का केन्द्र बनाएगा तो वह नष्ट हो जाएगा।

धारणाद्धर्ममित्याहु…

धारण करना ही धर्म है। एक राजा अपने देश की प्रजा के प्रति अपने कर्तव्य को धारण करता है और एक परिवार का मुखिया अपने कुटुम्ब परिवार के पालन-पोषण के प्रति अपने कर्तव्य को धारण करता है तो वे उनके धर्म कहलाए जाते हैं।

धर्म वह मानक है, वह दर्पण है-जिसमें राजनीति अपने सत्कर्मों और दुष्कमी। का चेहरा देख सकती है।

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