बुद्ध पूर्णिमा
Budh Purnima
लगभग 2500 वर्ष पहले कपिलवस्तु नगर के शाक्य प्रदेश में राजा शुद्धोधन राज्य करते थे। वह अपनी प्रजा के प्रति अत्यंत दयालु एवं न्यायप्रिय थे। उनकी प्रजा भी उनको बहत प्यार करती थी तथा उनका सम्मान करती थी। उनकी पत्नी माया को लोग स्वर्ग वाली स्त्री कहते थे क्योंकि वह बहुत सुंदर होने के साथ बहुत पवित्र एवं सरल हृदय थी। एक बार कपिलवस्तु में एक बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया। इस उत्सव में रानी ने भी भाग लिया और बहुत-सा दान दिया।
सातवें दिन पूर्णिमा को रानी ने एक विचित्र स्वप्न देखा। रानी ने राजा को जब अपना स्वप्न सुनाया तो राजा ने तुरंत विद्वानों को बुला भेजा ताकि इस विचित्र स्वप्न की व्याख्या कर सकें। सभी विद्वानों ने आपस में विचारकर राजा से कहा, “अब आप खुशियां मनाइए क्योंकि आपके घर में ऐसा पुत्र जन्म लेगा जो महापुरुष बनेगा। यदि वह घर में रहा तो ऐसा महान सम्राट बनेगा। कि उसकी कीर्ति पूरे संसार में फैलेगी और यदि उसने घर का परित्याग किया। तो एक महान संत और ज्ञानी बनकर मानवता की रक्षा करेगा।”
बैशाख मास की पूर्णिमा को रानी माया ने पुत्र को जन्म दिया। उसके जन्म के समय कई चमत्कार हुए। राजकुमार का नाम सिद्धार्थ रखा गया। बालक के जन्म के सातवें दिन रानी माया ने अपना शरीर त्याग दिया; परंतु उनकी बहन प्रजापति ने राजकुमार के लालन-पालन का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। सिद्धार्थ के मन में संसार को त्यागने का विचार कदापि न आये, इसलिए राजा ने राजकुमार को सभी भौतिक सुख-सुविधा दे रखी थी। परंतु जैसे-जैसे राजकुमार बड़ा हुआ। वह अन्य बालकों से भिन्न निकला। वह कई घंटे एकांत में बैठा रहता और गहन विचारों में लीन रहता।
एक बार एक पक्षी, जिसे सिद्धार्थ के चचेरे भाई देवदत्त ने मारा था। राजकुमार को मिला और उन्होंने उसकी चिकित्सा की। तभी देवदत्त वहां पहुंचा और कहा कि पक्षी मेरा है। सिद्धार्थ ने कहा कि जान लेने वाले से प्राण की रक्षा करने वाले का पक्षी पर ज़्यदा हक़ है। इसके अतिरिक्त अन्य कई घटनाओं द्वारा उनके सभी जीवों के प्रति प्रेम का ज्ञान होता है। इसलिए लोग उनसे केवल प्रेम ही नहीं, उनका सम्मान भी करते थे।
राजकुमार जवान हुए, तो उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया गया। यशोधरा जितनी रूपवती थी। उतनी ही विदुषी और योग्य भी थी। उनका एक पुत्र हुआ। जिसका नाम राहुल रखा गया। राजा शुद्धोधन बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा कि अब राजकुमार घर छोड़ने की बात कभी नहीं सोचेंगे।
एक दिन सिद्धार्थ ने महल से बाहर जाकर नगर में सैर करने की इच्छा प्रकट की। महाराज शुद्धोधन ने आज्ञा दी कि सारी सड़के फूलों और पत्तियों से सजा दी जाये, राजकुमार को कहीं भी कोई दुखी या पीड़ित व्यक्ति दिखाई न देराजकुमार रथ में सवार होकर बाहर भ्रमण को निकले। उनके रथवान का नाम चन्ना था।
नगर का भ्रमण करते समय राजकुमार ने एक बूढ़ा आदमी, एक निर्बल व्यक्ति और एक निर्जीव शरीर को देखा। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और मन अत्यंत पीडिंत हुआ। लगभग उसी समय उन्होंने एक सन्यासी को देखा। जिनके मुख पर अनोखी शांति थी। राजकुमार उनके पास पहुंचे और उनके खुश और शांत होने का रहस्य पूछासन्यासी ने उन्हें बताया कि शांति तभी मिल सकती है। जब मनुष्य संसार के बंधनों को तोड़ दे और परम सत्य को प्राप्त करे ले।
सन्यासी की बात सुनकर सिद्धार्थ ने तय कर लिया कि वह सन्यासी बनकर सच्चा ज्ञान प्राप्त करेंगे। उसी रात वह पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को सोता छोड़कर चुपचाप महल से निकल गयेसिद्धार्थ ने नदी किनारे पहुंचकर स्वयं तलवार से अपने केश काट डाले और बहुत साधारण वस्त्र धारण कर लिये।
राजकुमार उरविला के जंगल में ऋषियों के साथ एक आश्रम में रहने लगे और उनकी तरह दृढ़ तपस्या और कठोर व्रत का जीवन व्यतीत करने लगेइससे उनके मन को तो शांति नहीं मिली, अपितु उनका शरीर बहुत निर्बल हो गया। केवल स्वस्थ शरीर द्वारा ही मन को एकाग्र कर शांति प्राप्त की जा सकती है।
उरविला के जंगल में नीराजना नदी के किनारे एक बोधि वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ बैठ गये और उन्होंने निश्चय किया कि परम ज्ञान प्राप्त करने पर सारी सृष्टि सत्य और न्याय के नियमों के अनुसार चलती है। उन्हें लगा कि मनुष्य के सारे दुःख उसके स्वार्थ के कारण ही हैं और यह स्वार्थ ही मुक्ति-पथ में बाधक है। बुद्ध उस स्थान को छोड़ना नहीं चाहते थे जहां उन्हें सत्य का ज्ञान हुआ। इसलिए वे काफी समय तक वहीं रहे।
कुछ दिन पश्चात् वे बनारस में गंगा के तट पर मृग वाटिका (सारनाथ) पहुंचे, जहां पर उन्हें पांच शिष्य मिले जो उनके साथ उरविला में थेअमीर, गरीब, स्त्री, पुरुषसभी उनके उपदेश सुनने आते थेतीन महीने में ही उनके शिष्यों की संख्या साठ बन गयीअतः उन्होंने अपने शिष्यों को उपदेश दिया कि वे सब दिशाओं में जाये और मानवता का प्रचार करें।
अन्य अवतारों एवं सिद्ध पुरुषों की भांति बुद्ध का संदेश भी समस्त मानवता के लिए है। जिसमें किसी तरह का भेदभाव नहीं। जब बुद्ध अस्सी साल के थे तो वे उपवर्तन नामक उपवन में दो साल वृक्षों के बीच लेट गये और अपने प्राणों को त्याग दिया। ज्योति परमज्योति में समा गयी। अंतिम समय में भी उन्हें बस मानवता के सुख का ध्यान था। और उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा, “मानव जाति के लिए तुम्हें सत्य और धर्म का चारों दिशाओं में प्रचार करना होगा।”
जब बुद्ध के परम निर्वाण की सूचना सब जगह पहुंची तो चारों दिशाओं से संदेशवाहक आये और चिता की भस्म को लेने के लिए प्रार्थना करने लगे। देश के विभिन्न स्थानों में इन्हीं अवशेषों पर बुद्ध के स्मारक बनाये गये हैं। जिन्हें हम स्तूप के नाम से जानते हैं।