बिनु सत्संग विवेक न होई
Bin Satsang Vivekh Na Hoi
मनुष्य अपने जीवन में जैसी संगत करता है, वैसा ही उसका चरित्र बनता है। यदि हम अच्छे लोगों की संगत में रहेंगे तो हमको अच्छी बातें सीखने को मिलेंगी। हमारी आदतों में सुधार होगा। हमारा विवेक जाग्रत होगा। इसके विपरीत यदि हम बुरे विचारों तथा बुरे कर्म करने वाले लोगों के साथ रहेंगे तो उनके दूषित विचारों तथा गलत आदतों का हमारे ऊपर भी प्रभाव पड़ेगा।
‘सत्संग’ का अर्थ है ‘सत्य का संग’, लेकिन इस कलियुगी जगत् में सत्य कहाँ–जिसका कि संग किया जाए। यहाँ चारों ओर भ्रष्टाचार, झूठ, पाप, अधर्म तथा अत्याचार का बोलबाला है।
सत्संग की प्राप्ति चार स्रोतों से हो सकती है। सत्संग के पहले स्रोत अच्छे विचारों वाले मनुष्य हैं। सुविचार प्रिय होने के साथ-साथ ऐसे मनुष्य सुकर्मप्रिय तथा गुणप्रिय भी होते हैं। ऐसे लोगों के साथ उठने-बैठने, मित्रता अथवा मेलजोल आदि बढ़ाने या बातचीत करने में आदमी का जीवन सफल हो जाता है। सच्चे लोगों के साथ सम्पर्क रखने से सच्चाई ही जीवन में आती है। यदि हमारे अन्दर किसी प्रकार की कमी कमजोरी अथवा बुराई हो-या फिर अगर हमसे कोई भूल हो जाए तो उसे नेक दिल इन्सानों को साफ-साफ बता देना चाहिए। इससे त्रुटियों में सुधार होने की सम्भावना रहती है क्योंकि सच्चे लोग हमारी त्रुटियों को सुनकर हमारी जिन्दगी की उन्नति के लिए जो सलाह देंगे—उससे हमारे जीवन का भला ही होगा।
सत्संग के दूसरे स्रोत सद्ग्रन्थ हैं। ज्ञान, अध्यात्म तथा चारित्र्य सम्बन्धी पुस्तकों का अध्ययन करने से जीवनोपयोगी बातें सीखने को मिलती हैं। श्रेष्ठ पुस्तकें मानव की उन्नति का द्वार हैं। इनके अध्ययन तथा मनन-चिन्तन से सविवेक की प्राप्ति होती है।
सत्संग का तीसरा स्रोत विद्यालय, ज्ञानाश्रम आदि हैं जहाँ उत्तम जीवन जीने धा मिलती है। छोटे बच्चों को स्कूलों में दाखिला इसलिए दिलाया जाता कि उनकी बुद्धि तथा मस्तिष्क का विकास हो, उनका विवेक खुले तथा की बातों की समझ उनके अन्दर आए। स्कूल-कॉलिज की पढ़ाई पढ़कर य के अन्दर न सिर्फ बेहतर जीवन जीने की कला आती है, बल्कि वह अपने पैरों खड़े होने योग्य भी बनता है। अध्ययनशीलता के प्रभाव से व्यक्ति में संसार की कई बातों का सामना करने की शक्ति आती है।
सत्संग का चौथा और अन्तिम स्रोत स्वयं सत्यपिता परमपिता परमात्मा है परन्तु केवल ज्ञानी तथा योगी व्यक्ति ही उस सर्वोत्तम सत्य संग का लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
जिसके ऊपर सत्यपिता परमात्मा के आशीर्वाद का हाथ है, उसका विवेक कभी स्वप्न में भी नष्ट नहीं होता।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस काव्य के बालकाण्ड के शुरू में सत्संग की महिमा करते हुए यह चौपाई लिखी है-
‘‘बिनु सत्संग विवेक न होई।
रामकृपा बिनु सुलभ न सोई॥”
भावार्थ यह है कि सविचार की योग्यता, सत्यज्ञान, विवेचन और विचारणा, विचार-विमर्श और गवेषणा, भले-बुरे की पहचान, वस्तुओं में उनके गुणानुसार भेद करने की शक्ति, दृश्यमान जगत् तथा अदृश्य आत्मा में भेद करने की शक्ति तथा माया के रूप को पहचानने की शक्ति सत्संग के बिना प्राप्त नहीं हो सकती।
तनसुखराम गुप्तजी सत्संग के सम्बन्ध में कहते हैं–
सत्संग क्या है? साधु-महात्मा या धर्मनिष्ठ व्यक्ति के साथ उठना-बैठना और धर्म सम्बन्धी बातों की चर्चा करना सत्संग है। उस समाज या जन समूह की संगति करना जिसमें कथा-वार्ता या प्रभु नाम का पाठ होता है, सत्संग है। सज्जनों के साथ उठना-बैठना भी सत्संग है। तुलसीदासजी ने सत्संग का अर्थ । सन्त मिलन और उनके दर्शन, कथा, वार्ता आदि के श्रवण में लिया है।”
रामकृपा बिनु… अर्थात् जब मनुष्य के ऊपर ईश्वर की कृपा होती है तभी उसे सत्संग करने का मौका मिलता है, जिससे उसके विवेक के कपाट खुलते हैं।
सत्संग सुनने से मनुष्य के ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं तथा उसे भला-बुरा आदि जब कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है। विवेक का आधार ज्ञान है जो सत्संग से प्राप्त होता है।