भिक्षा वृत्ति
Bhiksha Vriti
एक समय था जब हमारे देश में साधु-संन्यासियों तथा गुरुकुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को भिक्षा देना पुण्य माना जाता था तथा ब्रह्मचारी संन्यासियों के लिए भी भिक्षा से पेट गुजारा करना धर्म माना जाता था। साधुओं का जीवन गृहस्थ लोगों से प्राप्त अन्न से चलता था और गृहस्थ लोग भी ऐसे जरूरतमन्द लोगों को भिक्षा देकर स्वयं को धन्य समझते थे।
गुरुकुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों का पालन करना समाज अपना धर्म समझता था। इसके लिए उन्हें अन्न, धन इत्यादि जरूरी चीजें भिक्षा या दान के रूप में दी जाती थीं। अपनी पढ़ाई-शिक्षा परी करने के बाद जब वह छात्र विवाह आदि करके गृहस्थ बनता था तो नौकरी अथवा सेवा कार्य आदि से समाज का हित किया करता था।
शंकराचार्य संन्यासियों की भिक्षावृत्ति के सम्बन्ध में कहते हैं-
“क्षद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यताम्…”
अर्थात्-संन्यासी को चाहिए कि भूख रूपी रोग की चिकित्सा भिक्षा रूपी औषधि खाकर करे।
ऐसी बात नहीं है कि प्राचीन काल में भिक्षुक तरह-तरह के ढोंग रचाकर या जबरदस्ती गृहस्वामिनी पर दबाव डालकर (आज के याचकों की तरह) भिक्षान्न प्राप्त करते थे (आजकल तो कुछ भिखारी तो आटे के बजाय रुपया-पैसा ही लेना अच्छा समझते हैं और उस पैसे को जुआ, सट्टा, बीड़ी, सिगरेट तथा शराब आदि के शौक में खर्च कर देते थे, लेकिन भिक्षुकों के भिक्षा माँगने के भी कुछ नियम थे।
समर्थ गुरु रामदासजी ने भिक्षकों के नियमों को अपने ‘दासबोध’ नामक ग्रन्थ में इस प्रकार लिखा है-
“पहले जाकर घर के द्वार से पूछना चाहिए कि कुछ भिक्षा मिलेगी?”
(इससे भिक्षा देने वाले की सहमति, असहमति या उसकी भावना का पता पड़ जाएगा)
“यदि भिक्षा में थोड़ा सा अन्न ही प्राप्त हो तो भी उससे सन्तोष कर लेना चाहिए”
(अर्थात् भिक्षुक को सन्तोषी स्वभाव का होना जरूरी है)।
“भिक्षुक जब भी भिक्षा माँगे तो आनन्दपूर्वक ही माँगे।”
(इससे भिक्षुक की निःस्पृहता का पता चलता है)
महात्मा गौतम बुद्ध ने भिक्षुकों को सन्तोषी स्वभाव का बताया है। बौद्धधर्म के प्रमुख धर्म ग्रन्थ ‘विनय पिटक’ में भिक्षुकों की भिक्षावृत्ति के बारे में लिखा है। कि भिक्षुकों का घर-घर भिक्षा माँगते घूमता सर्वसाधारण के हित के लिए होता है, लोगों पर दया करने के लिए होता है तथा देवताओं और मनुष्यों पर उपकार करने के लिए होता है। भिक्षुकों को भिक्षा देने वाले व्यक्ति का जीवन भी कृतार्थ हो जाता है अर्थात् सफल हो जाता है। भिक्षावृत्ति क्या है? असहाय अवस्था में अपना पेट भरने के लिए लोगों से हाथ फैलाकर कपड़े लत्ते, पैसे तथा अन्न इत्यादि की याचना करना तथा उस दान से अपना और अपने परिवार का गुजारा करना ही भिक्षावृत्ति है।
कबीरदासजी भिक्षावृत्ति के धन्धे को श्रेष्ठ नहीं समझते। वे कहते हैं-
“माँगन मरन समान है, मति कोई माँगो भीख।
माँगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥”
इसी तरह रहीमदासजी भी कहते हैं कि माँगना तो मरने के समान है लेकिन जो व्यक्ति भिखारी के माँगने पर भी उसे कुछ नहीं देता, वह भिखारी से पहले ही मरे हुए के समान है।
कहते हैं कि सतयुगी और त्रेतायुगी सृष्टि के समय भारतवर्ष के अन्दर कहीं कोई भिखारी नहीं था। सभी लोग धन-धान्य से भरपूर थे। द्वापर युग में भी भारतवासियों के पास धन की कोई कमी नहीं थी। बाद में (कलियुगी सृष्टि में) जब भारत में धनधान्य की कमी होने लगी, प्राकृतिक आपदाओं और गृहक्लेशों ने आदमी को बर्बाद कर डाला, मुस्लिम आक्रमणकारी विदेशों से आकर भारतवासियों को लूटने छीनने लगे तब भारतवासियों की आर्थिक दशा खराब होने लगी। इनमें से अनेक बेरोजगार व्यक्ति भिक्षावृत्ति करके अपना और अपने परिवार का पेट पालने लगे।
समय बीतता गया। जब भारत में अंग्रेज लोग आए तो उन्होंने अपने में लोगों को रोजगार, सुख-शान्ति, अनुशासन और वैज्ञानिक सुविधाएँ देने चेष्टा की। फलस्वरूप देश की जनता मेहनत मजदूरी करके अथवा कमाकर अपना और अपने आश्रितों का पेट भरने लगी। लोगों के अन्दर सम्मान से जीने की भावना ने जन्म लिया। इस काल में भारत के अन्दर भिक्षावृत्ति आटे में नमः की तरह अर्थात् बहुत नगण्य थी। अंग्रेज खुद भिक्षाकर्म को पसन्द नहीं करते थे।
अंग्रेजों के समय भारतीय लोगों के अन्दर तृष्णाएँ कुछ कम थीं और लोग थोड़े-से सुख-साधनों में अपने आपको सन्तुष्ट महसूस करते थे। उनके मन में समाज के दीन-दुःखी प्राणियों का उद्धार करने की भावना थी। वे अपनी आमदनी का कुछ हिस्सा याचकों को देकर कृतार्थता का अनुभव करते थे।
जब हमारा देश अंग्रेजों की कैद से स्वतन्त्र हुआ तो भारत आर्थिक रूप से निर्धन होने लगा। अरबों रुपये का कर्जा भारत पर हो गया। बाद में भारत की जनसंख्या भी 100 करोड़ तक पहुँच गई। देश के सभी व्यक्तियों के लिए रोजगार उपलब्ध न रहा। अतिवृष्टि और अनावृष्टि ने प्रलय का ऐसा ताण्डव मचाया कि मेहतन मजदूरी करके अपना और अपने बच्चों का पेट पालने वाला व्यक्ति भी भिक्षा का कटोरा लेकर सड़क पर खड़ा हो गया। गरीब लोग महँगाई और बेरोजगारी की मार के कारण दाने-दाने को मुहताज हो गए।
आजकल तो भिक्षावृत्ति देश में बुरी तरह बढ़ गई है तथा इसने व्यवसाय अथवा धन्धे का रूप ले लिया है। चूंकि हमारे देश में दान देने वाले व्यक्ति को ऊँची नजरों से देखा जाता है, इसलिए इस प्रवृत्ति को भारत में प्रोत्साहन मिल रहा है।
आजकल एक भिखारी दिनभर में 50 रुपए से लेकर 150 रुपए तक कमा लेता है। इतने धन में किसी भी गरीब व्यक्ति के परिवार का गुजारा आसानी से चल सकता है। अतः जब केवल हाथ फैलाने से व्यक्ति को 100-150 रुपए रोज मिल जाते हैं तो वह शरीर से खून-पसीना बहाना या मेहनत मशक्कत क्यों करना चाहेगा?
भिक्षावृत्ति के लिए लोग कई प्रकार की चालाकियाँ भी अपनाते हैं और उन चालाकियों से वे घर की मालिकिनों और राहगीरों को पैसा-रुपया डालने पर कर देते हैं। कुछ लोग कोढ़ियों जैसा मेकप कर लेते हैं और शरीर पर वहाँ फालतू पट्टी बाँधकर लूले-लंगड़े बनने की कोशिश करते हैं, कुछ लोग दाढ़ी मूछें बढ़ाकर और पीताम्बर पहनकर साधु बनने का ढोंग करते हैं या गिडगिडाने तथा तरह-तरह के फरियाद गीत गाने का प्रयत्न कर लोगों को भिख हेतु रिझाने का प्रयत्न करते हैं। कुछ बदमाश लोग तो मासूम बच्चों को अन्धा और अपाहिज कर उनसे भीख मँगवाते हैं।
हमारे देश की गौरवशाली संस्कृति के लिए अब भिक्षावृत्ति आत्मसम्मान की बात नहीं रह गई है।
देश में भिक्षावृत्ति की रोकथाम करने के लिए जरूरी है कि भारत सरकार भिक्षावृत्ति को दण्डनीय अपराध घोषित करे तथा देश के बेरोजगार लोगों को उनकी क्षमता के हिसाब से कोई-न-कोई रोजगार या काम अवश्य दे। हटटे-कट्टे लोगों को भिक्षा देना दानशीलता का नहीं बल्कि अधर्म का सूचक है, यह न्याय नहीं अन्याय है, पुण्य नहीं पाप है।
आचार्य विनोबा भावे की नजर में-
“कर्महीन मनुष्य कभी भिक्षादान का अधिकारी नहीं हो सकता।”