भारत में भ्रष्टाचार
Bharat me Bhrashtachar
जब मनुष्य अपने आचारण से गिरकर निजी स्वार्थों के लिए जीवन जीना शुरू करता है और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दूसरों का शोषण करने और उन्हें पीड़ा पहुँचाने से भी नहीं चूकता तो ऐसे आदमी को ‘भ्रष्ट’ कहा जाता है। जो आचरण समाज में निन्दनीय और दूषित माना जाता है-उसे भ्रष्टाचार कहते हैं। इसी प्रकार दूसरे शब्दों में पतित और अवैध आचरण ही भ्रष्टाचार कहलाता है।
जब कोई कर्मचारी किसी व्यक्ति की मजबूरी का फायदा उठाकर किसी से रिश्वत के रुपए लेकर उसका काम करता है, तो वह भ्रष्टाचार ही कहलाया। जाता है।
भ्रष्टाचार समाज और संविधान के कायदे-कानून, आदर्श और मूल्यों के सदैव प्रतिकूल ही होता है। एक श्रेष्ठ समाज में भ्रष्टाचार एक बुरे रोग की तरह है जो समाज को अन्दर-ही-अन्दर खोखला बना देता है।
सदाचरण सामाजिक जीवन-निर्मल दूध की तरह है। जब इस स्वास्थ्यवर्द्धक दूध में भ्रष्टाचार का थोड़ा-सा विष पड़ जाता है, तो सारे दूध में ही विषैले कीटाणु पैदा होकर समाज के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने लगते हैं। |
आज कलियुगी जगत् में भ्रष्टाचार चारों ओर खूब फलता-फूलता नजर आ रहा है। इस भ्रष्टाचार के रोग के कारण धन-सम्पन्न व्यक्ति तो जैसे-तैसे करके अपना काम चला लेते हैं लेकिन गरीब बेचारे की आफत ही आ जाती है।
धन लिप्सा अर्थात् धन प्राप्ति की इच्छा के कारण जब व्यक्ति बेईमान बन जाता है तो वह लोगों से उनका काम निकालने की फीस अथवा रिश्वत के लगता है।
जब प्रशासन में शिथिलता पैदा हो जाती है तब भ्रष्टाचार का राक्षस अपना मुख और हाथ-पैर फैलाने लगता है।
सरकार के छोटे-मोटे कर्मचारी जहाँ रोजाना 100 रुपए से लेकर हजार या दो हजार रुपए तक की रिश्वत खा जाते हैं, वही सरकारी तन्त्र से जुड़े हुए बड़े-बरे नेता लोग चारा, दूध, सीमेण्ट आदि खरीदने के बहाने सरकार के करोड़ों रुपए का गबन कर जाते हैं।
भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपेयीजी कहते हैं–
“…भ्रष्टाचार के विरुद्ध आज एक उदासीनता की स्थिति है क्योंकि भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया है। लोग मानने लगे हैं कि भ्रष्टाचार न सिर्फ प्रशासन में बल्कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस हद तक फैल चुका है कि उसे मिटाया नहीं जा सकता। इस उदासीनता की वजह सन् 1977 तथा 1989 के प्रयोग भी हैं। जे.पी. का आन्दोलन मूलतः भ्रष्टाचार के खिलाफ था, लेकिन जनता पार्टी सरकार इसके विरुद्ध व्यवस्थागत परिवर्तन न कर सकी। इसी तरह राष्ट्रीय मोर्चा सरकार भी आपसी कलह के चलते गिर गई और व्यवस्थागत बदलाव का मामला धरा रह गया। इन सारी चीजों के चलते जनभावना को ठेस पहुँची और आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई विराट जन आन्दोलन नहीं चल पा रहा है। इसका मतलब यह नहीं कि भ्रष्टाचार अब मुद्दा ही नहीं रहा, बल्कि सच तो यह है कि सार्वजनिक जीवन में ऊँचे पदों पर बैठे व्यक्तियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार हमेशा एक जीवित और जाग्रत मुद्दा है।”
बागीश शुक्ल कहते हैं–
अब भ्रष्टाचार एक तमाशे का भी काम करता है क्योंकि जनतन्त्र की मालिक जनता सरकारें पलटने का खेल भ्रष्टाचार के थियेटर में ही खेल सकती। हैं। भ्रष्टाचार एक ब्लैक कॉमेडी है-श्मशान में किसी अश्लील चुटकुले की तरह।”
स्वार्थ और अबाध भौतिक सुखों व भोग की लालसा का आधिक्य भ्रष्टाचार के रोग का कारण है। भ्रष्टाचारी होकर आदमी दूषित और निन्दनीय आचरण करने लगता है। करप्शन, रिश्वत, घूस और दस्तरी भ्रष्टाचार रोग के ही अन्य रूप हैं। मन की शुद्धता, श्रेष्ठाचरण, सन्तोष आदि द्वारा इस रोग पर काबू पाया जा सकता है।
भ्रष्टाचार एक मानसिक विकार है। यह मनुष्य की मानसिक वृत्तियों को विकृत बना देता है। जिस तरह रक्तचाप मधुमेह आदि रोग मानव की मृत्यु के साथ ही जाते हैं, उसी तरह से भ्रष्टाचार भी मृत्यु तक स्वार्थी व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ता। एक बार यदि कोई कर्मचारी रिश्वत लेते पकड़ भी लिया जाता है तो वह कोई-न-कोई उसे जमानत पर छुड़ा लेता है और इनके पश्चात् वह फिर से चोरी छिपे रिश्वत लेकर काम करने शुरू कर देता है।
भ्रष्टाचार एक संक्रामक रोग की तरह है। व्यवस्थागत बदलाव के बिना भ्रष्टाचार के रोग पर चोट कर पाना असम्भव है।