भाग्य और पुरुषार्थ
Bhagya Aur Purusharth
जीवात्मा संसार में आते ही भिन्नत्व को प्राप्त होता है। कोई गरीब है, कोई अमीर है। कोई तो झुग्गी-झोपड़ी में जन्म लेता है और पूरा जीवन अभावग्रस्त, रोग, भूख, शोक, अपमान की स्थिति में रहकर हर पल जीता हुआ संसार से कूच कर जाता है। कोई किसी संपन्न घराने में जन्म लेता है, जहाँ सब सुख-सुविधाएँ, पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान का बाहुल्य होता है। किसी को दीर्घायु प्राप्त होती है, तो कोई अकाल ही कालग्रस्त हो जाता है। यह विषमता संसार में जीवात्मा के साथ कारण चाहती है, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में दृष्टिगोचर नहीं होती। तब साधारणतया हम सब सोचने लगते हैं कि तकदीर का ही खेल है। भाग्य प्रबल लगता है। ऐसा भी मानना पड़ता है कि आत्मा अविनाशी है और यह विषमता हमारे साथ पूर्व जन्म के कर्मों के कारण उपस्थित है। कोई मिट्टी में हाथ डालता है, तो उसके पास अपार धन हो जाता है और कई बार कोई संपन्नता की ऊँचाई से ऐसा गिरता है कि सब कुछ मिट्टी हो जाता है। शायद इसीलिए हम लोग तकदीर का रोना रोते हैं और भाग्य की पलटने की कई उल्टी-सीधी जुगते लगाते हैं। कई लोग तो जादू-टोना, धागा-ताबीज, झाड़-फूंक या फिर किसी पाखंडी-ज्योतिषी का सहारा लेते हैं। जब ऐसे मिथ्याचार व अंधविश्वासों से कुछ नहीं होता, तो भाग्य को प्रबल मानकर बैठ जाते हैं। मनीषो कहते हैं कि पुरुषार्थी अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं। केवल आलसी अपने भाग्य को कोसते हैं। जो परिश्रम करता है उसे लक्ष्य मिलने की संभावना अधिक होती है। महाराज भर्तृहरि ने मनुष्यों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया था-अधम, मध्यम और उत्तुम। अधम क्लेश के डर से कोई काम प्रारंभ नहीं करते। मध्यम लोग कार्य प्रारंभ तो कर देते हैं, परन्तु कोई विघ्न पड़ने पर दुखी होकर बोच लेते हैं। ऐसे लोग पुरुषार्थी कहलाते हैं। में छोड़ देते हैं परन्तु उत्तुम लोग बार-बार कष्ट, विघ्न आने पर भी प्रारंभ किए गए काम को नहीं छोडते. वरन उसे पूरा करके ही दम लेते हैं। ऐसे लोग ही पुरषार्थी कहलाते हैं।