भगवान महावीर स्वामी
Bhagwan Mahavir Swami
निबंध नंबर -: 01
भूमिका- भारतवर्ष एक ऐसा देश है जिसने एक नहीं, अनेक महापुरुषों को जन्म दिया जो समय-समय पर दु:खी मानवता को शान्ति प्रदान करते रहे तभी तो विदेशों से आकर दूसरे लोग भी भारत में शिक्षा प्राप्त करते थे। भारत से विद्या रूपी प्रकाश लेकर अपनी अज्ञानता के अन्धकार को दूर करते थे। जिन महापुरुषों के कारण जगत गुरु कहलाया, उन्हीं महापुरुषों में से वर्धमान महावीर स्वामी का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
परिस्थियिाँ- वर्तमान महावीर स्वामी और महात्मा गौतम बुद्ध साथ-साथ ही पैदा हुए थे। दोनों की परिस्थितियां लगभग एक जैसी ही है। महात्मा बुद्ध ने अपना नयामत चलाया जबकि महावीर स्वामी जैनियों के 24वें तीर्थकर बने। जैन धर्म का आरम्भ ईसा से बहुत पहले हो चुका था और उनके 23 तीर्थकर सामने आ चुके थे। श्री वर्धमान महावीर स्वामी जी ने जैन धर्म को समाज के सामने प्रस्तुत करने में, जैन धर्म के सिद्धान्तों की व्याख्या करने में, पुराने तीर्थकरों के उपदेशों को इकट्ठा करने में बड़ा योगदान दिया है। इसीलिए कुछलोग भ्रमवश जैन धर्म का आरम्भ ही वर्धमान महावीर स्वामी जी से मानते हैं। वास्तव में जैनमत का उदय बहुत पहले हो चुका था।
जीवन साथी- श्री वर्धमान महावीर स्वामी का जन्म ईसा-पर्व 598 में, गंडक नदी तट पर, कुण्ड ग्राम से, वैशाली नाम के स्थान पर सिद्धार्थ राजा के घर त्रिशला रानी गर्म से चैत्र शुकला त्रयोदशी के दिन हुआ। इस लड़के का असली नाम कुमार वर्धमान था। कहा जाता है कि एक वार इसने जिन्दा सांप को पकड़ लिया था, इसलिए इसका नाम महावीर रखा गया। उन्होंने यशोधरा नामक लडकी जो विवाह किया और प्रियदर्शना नामक लड़की को जन्म दिया। दिगम्बर जैनी इस को नहीं मानते। उनका विचार है कि महावीर स्वामी सारा जीवन ब्रह्मचारी रहे। पिता जी ने बच्ते को राजकाज में लगाना चाहा पर महावीर स्वामी ने सन्यास ले लिया और गण्ड की नदी के किनारे तपस्या करने लगे। 12 वर्ष की तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तीस वर्ष उन्होंने घूम-घूम कर अपने विचारों की व्याख्या की और 72 वर्ष की आयु में उन्हें निर्वाण-पद प्राप्त हुआ।
सिधान्त-जैन धर्म के सिद्धान्तों की आधारशिला अहिंसा है। मन, वचन और कर्म से जीव-मात्र को दुःख न देना अहिंसा है। महावीर स्वामी ने हिंसा के चार प्रकार बताए।
- संकल्प- जान बूझकर जीव की हत्या करना संकल्प हत्या है।
- आरम्भी- अनजाने में जीवों का हनन जैसे झाडू लगाने से कीड़ों आदि का नाश आरम्भी हिंसा है। लकडी जलाते हुए या पानी पीते हुए जो सूक्ष्म किटाणु मरते हैं वे इसी हिंसा में आते हैं। यही कारण है कि जैन साध और साध्वी मुंह पर पट्टी रखते हैं और हाथ में एक कोमल रजोहरण पकड़े रहते हैं और पानी छान कर पीते हैं।
- उद्योगी- अहिंसा के प्रयत्न करने पर जो हिंसा हो जाए वह उद्योगी हिंसा कहलाती है।
- विरोधी- बदले की भावना से किसी की जो हिंसा की जाए, उसे विरोधी हिंसा कहा जाता है।
वर्धमान स्वामी ने जैनियों के दो तरह के धर्मों का उल्लेख किया है पहला भिक्षु धर्म और दूसरा श्रावक धर्म। जो जैनी साधु बन जाते है वह भिक्षु धर्म है इसके सिद्धान्त बहुत कठोर हैं। दूसरा धर्म गृहस्थियों के लिए हैं, उसे श्रावक धर्म कहते हैं। महावीर स्वामी जी का कहना है कि गृहस्थी को भी मुक्ति मिल सकती है यदि उसमें कर्म की शुद्धता है। आपका कहना है कि जहां तक हो सके, मोह से दूर रहो। मोह ही मनुष्य को संसार के जाल में फंसाता है। दूसरा दोष है लोभ, मोह की तरह लोभ भी भयंकर दोष है। लोभ ही मनुष्य के इधर-उधर भटकाता है। श्रावक को संयम का सहारा लेना चाहिए और लोभ का त्याग करना चाहिए।
महावीर स्वामी जी का विचार है कि अच्छे किए हुए कर्म कर्मों को नष्ट करते हैं और कर्मों के नष्ट होने से मनुष्य संसार के बन्धनों से मुक्त होता है। आपका कहना है कि सच बोलना चाहिए जो प्रिय हो कटु न हो। नशीली वस्तुओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए और चोरी भी नहीं करनी चाहिए। संसार दु:खों का घर है। कर्म दु:खों का कारण है। उनका कहना है कि ‘जियो और जीने दो’। महावीर स्वामी भारतीय एकता के प्रतीक थे। उन्होंने हमें जो सन्देश दिया वह अमर है। हमें उनके सिद्धान्तों पर चलने का प्रयत्न करना चाहिए।
निबंध नंबर -: 02
भगवान महावीर
Bhagwan Mahavir
भगवान महावीर को वर्धमान महावीर भी कहा जाता है। वर्धमान महावीर का जन्म 599 ईसा पूर्व भारत में बिहार के वैशाली के निकट कुंडग्राम में हुआ था। वैशाली लिच्छवी गणतंत्र की राजधानी थी। वह कुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ और त्रिशला के सुपुत्र थे। सिद्धार्थ नाथ वंश के शूरवीर परिवार से संबंध रखते थे। वर्द्धमान महावीर की माँ त्रिशला चेतक की पत्री थीं, जो वैशाली के शक्तिशाली और सुप्रसिद्ध लिच्छवी राजा थे। वर्धमान महावीर के एक बड़े भ्राता थे जिनका नाम था-नंदीवर्धन। वर्धमान महावीर की छः मौसियाँ थीं, पूर्वी भारत के विभिन्न राजाओं के साथ जिनका विवाह हुआ था। इस प्रकार वर्धमान विभिन्न राजाओं से ताल्लुक रखते थे और जैन धर्म के सुधार में उन्होंने भरपूर सहायता की थी।
यह गलत धारणा थी कि वर्धमान महावीर जैन धर्म के संस्थापक थे। लेकिन बहुत से भारतीय और पश्चिमी विद्वान तथा इतिहासकारों ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि महावीर स्वामी जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, वे धर्म-प्रवर्तक थे। उन्होंने 23वें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सिद्धांतों को परिष्कृत और प्रचारित किया था।
वर्धमान महावीर को एक राजकुमार के रूप में सभी प्रकार की शिक्षा मिली थी। उन्होंने साहित्य, कला. दर्शनशास्त्र, प्रशासनिक विज्ञान आदि शिक्षा बहुत शीघ्र और आसानी से ग्रहण कर ली थी। परंतु दुनिया की किसी भी वस्तु से उन्हें कोई लगाव नहीं था, उनका मन तो वैराग्य से हुआ था। वे इस दुनिया को त्यागकर वैराग्य लेना चाहते थे, परंतु उनके माता-पिता ये नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र वैराग ले।
जब वर्धमान महावीर 28 वर्ष के थे, तब उनके माता-पिता का देहां हो गया। अब वह वैराग्य लेने के लिए स्वतंत्र थे। परंतु उनके भाई नंदीवर्धन ने वर्धमान महावीर को कुछ समय तक वैराग्य न लेने के लिए प्रार्थना की, तो अपने बड़े भाई का मान रखते हुए उन्होंने 30 वर्ष तक राजमहल में रहने की उनकी बात मान ली। इन दो वर्षों में वर्धमान महावीर संन्यासी जीवन जीने का अभ्यास करने लगे।
उसके बाद जब वे 30 वर्ष के हो गए, तो उन्होंने अपनी सारी व्यक्तिगत संपत्ति ज़रूरतमंद और गरीबों को दान कर दी, शेष संपत्ति को वे अपने घर पर ही छोड़ गए। फिर वे जंगलों में नंगे पाँव घूमे, उन्होंने वहाँ तपस्या की और अपना संपूर्ण समय उन्होंने किसी से कुछ बोले बिना जंगलों में ही व्यतीत किया। इस दौरान उन्होंने बहुत कम खाया और अधिकांशतः उन्होंने बिना कुछ खाए-पिए ही जीवन गुजारा। लोगों ने उन्हें तंग भी किया, परंतु वे शांत रहे। उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा।
12 वर्ष बाद 42 वर्ष की उम्र में उन्होंने सत्य की खोज कर ही ली। अर्थात् उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई और वे अर्हत या जिन कहलाए। फिर वर्धमान महावीर दिगंबर भिक्षु बन गए। उन्होंने बिना किसी मोटरगाड़ी के पूर्वी भारत के विभिन्न प्रांतों की यात्रा की, जो बिहार, झारखंड, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा और पूर्वी उत्तर प्रदेश में हैं। उन्होंने इन सब स्थानों पर उपदेश दिए। उनके तीन सिद्धान्त, जैन धर्म के तीन रत्न हैं-सम्यक् ज्ञान, सम्यक् धर्म और सम्यक् आचरण। उनके महाव्रत थे-सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। उनका ध्येय था कि हर मनुष्य मोक्ष प्राप्त करे। वर्धमान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में (527 ईसा पूर्व) बिहार के पावापुरी में निर्वाण प्राप्त किया था। आज उनके सिद्धांतों का संपूर्ण विश्व अनुसरण करता है।