बस्तर का दशहरे का मेला – मध्य प्रदेश
Bastar ka Mela – Madhya Pradesh
दशहरे का पर्व सारे भारत में मनाया जाता है। सभ्य और शिक्षित लोग तो मनाते ही है। आदिम और वन्य जातियों के लोग भी मनाते हैं। आदिम और वन्य जातियों के लोग भी मनाते हैं। मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में वन्य जातियों के लोग बहुत रहते हैं। दशहरे के पर्व के अवसर पर उनमे अपूर्व उत्साह देखने को मिलता है।
सारे छत्तीसगढ़ में दशहरे के अवसर पर मेला लगता है। पर उस मेले में रामायण की कथा के आधार पर चौकियों और झाँकियौ नहीं सजाई जाती है। बल्कि विभिन्न लोक कथा।ओं के आधार पर युद्ध नृत्य किये जाते हैं। उन नृत्यों में नुकीले भालो और धनुषबाणों का भी प्रयोग किया जाता है। अपनी प्रथा के अनुसार स्त्री-पुरुष नाचते और गाते हैं।
यो तो सारे छत्तीसगढ़ में मेला लगता है। पर बस्तर में जो मेला लगता है। उसका अपना निराला ही ठाट होता है। बस्तर पहले एक रियासत थी और उसकी राजधानी जगदलपुर में थी। पर स्वतंत्र भारत में जब सारी रियासतें भारत संघ में मिला ली गई, तो बस्तर की रियासत भी मिला ली गई। कहते हैं।
जब बस्तर में राजा का राज्य था तो राजा के प्रयत्नों से दशहरे का मेला बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था, पर अब जो मेला लगता है। उसमें पहले की सी रंगत नहीं दिखाई पड़ती, फिर भी मेला बड़ा शानदार होता है। उसे देखने के लिए बहुत बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष एकत्र होते हैं। उन स्त्री-पुरुषों में बस्तर के लोग ही नहीं होते, सारे मध्य प्रदेश के लोग भी होते हैं। उस मेले को देखने के लिये बहुत से विदेशी पर्यटक भी जगदलपुर में पहुंचते हैं। बस्तर वन्य और आदिम जातियों का क्षेत्र है। जगदलपुर के चारों ओर बड़ी दूर तक वन्य और आदिम जातियों के लोग फैले हुए हैं। आज के वैज्ञानिक युग में भी उनमें बहुत सी पुरानी प्रथा।यें और रीतिया प्रचलित हैं। उनके लोक गीत और लोक नृत्य बड़े अनूठे होते हैं। वे होते तो हैं गरीब, पर नाचते-गाते खूब हैं। काम करते हुये भी सुरीली तान छेड़ते हैं।
यी तो वन्य और आदिम जातियों के अनेक देवी-देवता होते हैं।पर बस्तर के लोग दन्तेश्वरी देवी की पूजा-अर्चना बड़ी श्रद्धा के साथ करते हैं। वे देवी की वन्दना में तहे-तरह के गीत गाते हैं। बलि चढ़ाते हैं और नाचते हैं। देवी का दया और महत्ता के सम्बन्ध में बहुत सी कथायें प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार, भूमियाँ उराँव का राजा कभी जब दुःखों के दलदल में फँसा तो देवी की कृपा से ही उसकी दुःखों से मुक्ति हुई। उराँव के लोग आज भी देवी की उस कृपा के उपलक्ष में कर्मा पर्व मनाते हैं।
दन्तेश्वरी देवी का मंदिर जगदलपुर में है। दशहरे के दिन बहुत बड़े रथ पर देवी की मूर्ति को स्थापित किया जाता है। हजारों आदिवासी उस रथ को खींचते हैं। उस रथ को खीचना बड़े पुण्य का काम समझा जाता है। रथ के आगे-आगे अपनी वेश-भूषा में वन्य जातियों के लोग युद्ध नृत्य करते हुए चलते हैं। वे अपने हाथों में नुकीले भाले लिये रहते हैं। उनका युद्ध बड़ा रोमांचकारी होता है। उसे देखने के लिये लाखों लोग अपनी पलकों का गिराना भी भूल जाते हैं।
दशहरे के अवसर पर एक और प्रकार का नृत्य किया जाता है। जिसे शैला नृत्य कहते हैं। शैला नृत्य में स्त्री-पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यह नृत्य भी बड़ा ही लोम हर्षक होता है।
एक बहुत बड़े लेखक ने बस्तर के मेले का वर्णन करते हुए लिखा है। मैने दशहरे का मेला कई बड़े-बड़े नगरों में देखा है। पर बस्तर के मेले में मैंने वीररस का जो उमड़ता हुआ। सागर देखा। वह मुझे अन्यय कही देखने को नहीं मिला।
सचमुच बस्तर का दशहरे का मेला मेला नहीं, वीर रस का जीता-जागता संगम है। उस मेले में एकता और बन्धुत्व का जो दृश्य देखने को मिलता है। वह बड़ा अनूठा होता है।