बाल विवाह एक कुप्रथा
Bal Vivah Ek Kupratha
बाल-विवाह का अर्थ है बालक-बालिका का विवाह अथवा व्यक्ति का छोटी उम्र में किया जाने वाला विवाह। इस उम्र में व्यक्ति बिल्कुल अबोध होता है तथा उसे इस बात की समझ नहीं होती कि विवाह क्यों किया जाता है? विवाह क्या होता है?
जो बालक-बालिका वयस्क और तरुण न हुए हों-उनका विवाह करना ‘बाल-विवाह’ कहलाया जाता है। कानून की दृष्टि में 16 वर्ष से कम आयु की किशोरी तथा 18 वर्ष से कम आयु के किशोर का विवाह ‘बाल-विवाह’ की श्रेणी में आता है।
भारतीय परम्परा में ऋषि-मुनियों ने मानव की अवस्था को चार प्रकार से बाँटा है- (1) ब्रह्मचर्य आश्रम, (2) गृहस्थाश्रम, (3) वानप्रस्थ आश्रम और (4) संन्यास आश्रम। इन चारों आश्रमों की आयु 25-25 वर्ष कही गई है। बचपन से लेकर 25 वर्ष तक की आयु को ब्रह्मचर्याश्रम कहा गया है। इस आश्रम में बच्चा पढ़-लिखकर बड़ा होता है किन्तु विवाह आदि संस्कार इस आयु में नहीं किए जाते।
प्राचीन काल में मनु महाराज ने ऐसी व्यवस्था बनाई थी जिसके अन्तर्गत 25 वर्ष तक की आयु व्यक्ति के लिए विद्याध्ययन आदि के लिए निर्धारित की गई थी। इस आयु के पश्चात् ही आदमी विवाह के बन्धन में बाँधा जाता था।
भारत में बाल-विवाह के प्रचलन के कई कारण हैं। इनमें एक कारण तो यह है कि नारी का अधिक आयु में विवाह करना उसके जीवन के लिए खतरा माना जाता था। मुस्लिमकाल (मुगलसल्तनत) के समय भारत में कई मुस्लिम शासक ऐसे थे जो अविवाहित हिन्दू स्त्रियों पर बुरी नजर रखते थे। विवाहित स्त्रियों को तो ज़्यदा परेशान नहीं करते थे परन्तु जिस किसी स्त्री को कुंवारी देखते उसे अपने महल में रखैल या दासी की तरह रख लेते थे।
हिन्दू घरों के माता-पिता, इस डर से कि उनकी पुत्री पर किसी की बी नजर न पड़ जाए-बहुत कम उम्र में किसी बालक के साथ उसकी शादी कर देते थे। शादी हो जाने के बाद कन्या काफी समय तक अपने घर रहती थी। फिर उसे उसकी ससुराल भेज दिया जाता था।
बाल-विवाह का दूसरा कारण दहेज प्रथा को भी समझना चाहिए। जब कन्या अधिक उम्र की होगी तो उसके लिए वर भी अधिक उम्र का तलाशा जाएगा। अधिक उम्र का वर पढ़ा-लिखा होगा, नौकरी या काम-धन्धे वाला होगा इसलिए उसे दहेज भी अधिक देना होगा जबकि छोटी उम्र की कन्या जब छोटी आयु के वर के लिए ब्याहेगी तो कम ही दहेज में काम चल जाएगा इसलिए गरीब परिवारों में आज भी कम आयु में कन्या का विवाह कर दिया जाता है।
बच्चों का छोटी उम्र में विवाह कर देना-उनके जीवन को मुसीबत में डालना है। छोटी उम्र में वर (लड़का) अपने पैरों पर तो खड़ा हो नहीं पाता अतः वह अपनी पत्नी का और अपना भरण-पोषण कहाँ से कर सकता है। इस हाल में उसे अपने माता-पिता पर या परिवार के किसी अन्य सदस्य पर आश्रित रहना पड़ता है।
वैवाहिक जीवन में अर्थ या धन की समस्या सबसे बड़ी समस्या होती है। बाल-विवाह कर देने से यह समस्या घटती नहीं, बल्कि और भी ज्यादा बढ़ जाती है।
हिन्दू समाज में प्रचलित बाल-विवाह की बुरी प्रथा को रोकने के लिए केशवचन्द्र सेन ने बहुतेरे प्रयास किए और प्रयत्नों के फलस्वरूप सरकार ने सन् 1972 ई. में एक ‘नेटिव मैरिज एक्ट पास किया था। इस कानून के तहत बालविवाह तथा बेमेल-विवाह अवैध घोषित कर दिए गए। एक पारसी पत्रकार श्री बहराम जी मालावारी ने भी अपनी पुस्तकों के माध्यम से बाल-विवाह रोकने के काफी प्रयास किए। उनके प्रयत्नों के फलस्वस्वरूप सरकार द्वारा सन् 1891 ई. में ‘एज ऑफ कन्सेंट एक्ट पास कर दिया गया। सन् 1929 ई. में हरिविलास शारदा के प्रयत्नों के फलस्वरूप एक “शारदा एक्ट’ पास हुआ। यह एक्ट बाल-विवाह के विरुद्ध की गई कार्यवाही थी। इसके अन्तर्गत विवाह के समय लड़के की आयु 18 वर्ष और लड़की की आयु 14 वर्ष घोषित की गई। ऐसा होने पर भारत के अन्दर बाल-विवाह की प्रथा पर अंकुश लगने लगा।
आज हमारे देश के कानून में विवाह के समय लड़के की उम्र कम-से-कम 21 वर्ष तथा लड़की की उम्र 18 वर्ष होना जरूरी है। यदि लड़के-लड़की के माता-पिता इस बात को ध्यान में न रखकर इससे कम उम्र में अपनी लड़की या लड़के का विवाह करते हैं तो यह भारतीय कानून का उल्लंघन है।
जब देश में बाल-विवाह की प्रथा होगी तो बच्चे भी छोटी आयु से पैदा होना शुरू हो जाएँगे फलस्वरूप देश की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होगी जो कई प्रकार की आर्थिक एवं सामाजिक कठिनाइयों को जन्म देगी।
बाल-विवाह की कुप्रथा नर नारी के स्वास्थ्य को चौपट करने वाली, देश की जनसंख्या में तीव्रता से वृद्धि करने वाली तथा राष्ट्र की उन्नति और विकास में बाधक तत्त्व है। जब तक हमारे देश से इस कुप्रथा का अन्त नहीं होगा। तब तक भारत का कल्याण नहीं हो सकता।