Hindi Essay on “Baikunth Kavari ka Mela –  Bihar”, “बैकुंठ कांवरि का मेला – बिहार”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

बैकुंठ कांवरि का मेला – बिहार

Baikunth Kavari ka Mela –  Bihar

 

बैकुंठ कांवरि का अपने ढंग का बड़ा अदभुत मेला है।  यह मेला बिहार को छोडकर और किसी भी राज्य में नहीं लगता। बिहार में इस मेले को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है।  बिहारी भाषा में मेले के सम्बन्ध में बहुत से गीत बने हुए हैं। प्रेमी और भक्त उन गीतों को बड़े प्रेम और श्रद्धा के साथ गाते हैं।

एक लोक गीत में एक आदमी बड़े प्रेम के साथ कहता है।  हे शिवजी यदि मेरे घर में पुत्र का जन्म हुआ, तो मैं गगा जल से भेर हुए कलशों की कावरि कंधे पर रख कर आपके धाम में पहुँचने तक कांवरि को मार्ग में कहीं भूमि पर नहीं रखेंगा। जब तक आप के धाम में पहुँच कर गंगा जल आप को अर्पित नहीं कर लूंगा, चलता रहूँगा, चलता रहूँगा।

बैकुंठ कांवरि में दो शब्द हैं-बैकुंठ और कांवरि। शब्दों के अर्थ के अनुसार जो मनुष्य कांवरि में गंगा जल लेकर बैजनाथ धाम पहुँच कर बैजनाथ जी को गंगा जल अर्पित करता है।  उसे अनायास ही स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है।  कुछ लोगों का कहना है।  बैजनाथ जी को गंगा जल अर्पित करने से मनुष्य की लौकिक कामनाओं की पूर्ति भी होती है।

बैजनाथ या वैद्यनाथ पटना से कुछ मील दूर एक रेलवे स्टेशन है।  रेलवे स्टेशन से कुछ मील दूर बैजनाथ की एक छोटी सी बस्ती है।  उसे एक बड़ा कस्बा कहा जा सकता है।  कस्बे में छोटे बड़े बहुत से मकान बने हुए हैं। स्थान बड़ा रमणीक और सुन्दर हैं। अनेक अवकाश प्राप्त वृद्ध भक्त और प्रेमी कस्बे के आस-पास निवास करते हैं। कस्बे में शिवजी का एक प्राचीन मंदिर है।  मंदिर अधिक बड़ा तो नहीं है। पर अपनी प्राचीनता और पौराणिकता के लिये बहुत प्रसिद्ध है।  मंदिर में जो शिवलिंग प्रतिस्थापित है। उसे बैजनाथ के नाम से सम्बोधित किया जाता है।  शिवजी के द्वादश ज्योतिर्लिंग है।  उनमें एक बैजनाथ भी है।  

बैजनाथ का यह नाम कैसे और क्यों पड़ा-इस सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा कही जाती है।  जो इस प्रकार है-

कहते हैं-लंका का राजा रावण शिवजी का बड़ा भक्त था। वह उनकी पूजा करने के लिये लंका से कैलाश जाया करता था। प्रतिदिन आने-जाने में उसका बहुत समय लगता था। अतः उसने सोचा क्यों न वह शिवजी को ही कैलाश से लाकर लंका में स्थापित  करे।

रावण ने जब शिवजी से लंका में चलने की प्रार्थना की, तो वे मान तो गये, पर उन्होंने एक शर्त लगा दी-यदि तुम मार्ग में मुझे कंधे से उतार कर कहीं रख दोगे तो मैं वहीं रह जाऊँगा। कितना ही प्रयत्न करना, उठाये उठेंगा नहीं।

रावण ने शर्त स्वीकार कर ली। वह शिवजी को कंधे पर बिठा कर कैलाश से लंका की ओर चल पड़ा। पर दैव इच्छा। रावण जब आज के बैजनाथ धाम में पहुँचा तो उसे बड़े जोर की लघु शंका की इच्छा हुई। उन दिनों वहाँ बस्ती नहीं थी। चारो ओर वन ही वन था।

लघु शंका की तीव्र इच्छा होने पर रावण शर्त को भूल गया। वह शिवजी को धरती पर रख कर लघु शंका करने लगा। कहते हैं कि इस क्रिया में उसे इतना अधिक समय लगा कि वहाँ एक तालाब सा बन गया। आज भी बैजनाथ धाम में एक तालाब है।  जिसे रावण का तालाब कहा जाता है।

लघु शंका के पश्चात कंधे पर रखने के लिये रावण पुनः शिवजी को उठाने लगा, पर शर्त के अनुसार शिवजी उठ नहीं सके। रावण जब उठाने में विवश हो गया तो वह शिवजी को वहीं छोड़ कर लंका चला गया।

सर्वप्रथम शिवजी का पता एक अहीर को चला, जिसका नाम बैजनाथ था। वह वन गाय चराया करता था। एक दिन उसने देखा कि एक गाय एक स्थान पर खड़ी होकर अपने थनों से दूध गिरा रही है।  उसने कई दिनों तक लगातार उस गाय को उस जगह दूध गिराते हुए देखा। उसके मन में बड़ा आश्चर्य उत्पन्न हुआ। । उसने उस जगह की मिट्टी को हटाया तो उसे शिवलिंग मिला। उस शिवलिंग की सर्वप्रथम पूजा बैजनाथ ने ही की थी। इसीलिये उस ज्योतिर्लिंग को बैजनाथ के नाम से सम्बोधित किया।  जाने लगा। आज के बैजनाथ के मंदिर में वहीं ज्योतिर्लिंग स्थापित है।

यो तो बारहों मास देश के कोने-कोने से लोग बैजनाथ की पूजा-अर्चना के लिये बैजनाथ धाम पहुँचते हैं।पर श्रावण के महीने में पूजा और अर्चना करने वालों की बड़ी भीड़ एकत्र होती है।  बिहार के कोने-कोने से भक्त और प्रेमी केसरिया वस्त्र पहने हुए। 

कंधे पर कांवरि रख कर निकल पड़ते हैं। वे सुलतान गज में गंगा में नहाते हैं।  और कलशों में गंगा जल भर कर कांवरि में रखते हैं। कतार की कतार में केसरिया रंग के कपड़े पहने हुये काँवरिधारी जब चलते हैं।तो बड़ा ही मनोहारी दृश्य होता है।  श्रावण का महीना, चारों ओर हरियाली छाई रहती है। आकाश में बादल घुमड़-घुमड़ कर गरजते रहते हैं और धीमी-धीमी फुहारें पड़ती रहती हैं। शिवजी के गीत गाते हुए। उनका गुणगान करते हुए काँवरिधारी अपने पैरों को बैजनाथ धाम की ओर बढ़ाते जाते हैं।

बैजनाथ धाम में काँवरिधारियों का अपार जमघट। उस जमघट में ब्राह्मण भी होता है। अछूत भी होता है। क्षत्रिय भी होता है। तथा वैश्य भी होता है।  मनुष्यों का ऐसा संगम होता है कि उसमें जाति और सम्प्रदाय का भेद डूब जाता है।

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