आदर्श विद्यार्थी
Adarsh Vidyarthi
निबंध नंबर :- 01
भारतीय परम्परा के चार आश्रमों में पहला आश्रम ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ है। यह आश्रम खासतौर से विद्यार्थी जीवन के लिए ही निर्धारित है। बचपन से लेकर पच्चीस वर्ष तक की आयु तक यह आश्रम माना जाता है। इस आयु में व्यक्ति का स्कल। में दाखिला किया जाता है, वह प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों की पढ़ाई पूरी करके महाविद्यालय में दाखिला लेता है और कॉलिज शिक्षा पूरी करने के बाद नौकरी पाने के उद्देश्य से प्रतियोगी परीक्षाओं की पढ़ाई भी करता है।
मनुष्य के जीवन का प्रथम भाग विद्योपार्जन का काल होता है। इस स्वर्णिम काल में व्यक्ति विद्या के मूल्यों से अवगत होकर श्रेष्ठ नागरिक बनने की क्षमता और सामर्थ्य प्राप्त करता है।
स्कूल और कॉलिजों में दाखिला लेने वाले प्रायः सभी छात्र-छात्राएँ विद्यार्थी ही होते हैं लेकिन इनमें आदर्श विद्यार्थी बहुत कम होते हैं।
‘आदर्श विद्यार्थी वे होते हैं जो हमेशा अपने मन में सात्त्विक विचार रखते हैं अथवा शुद्ध संकल्प करते हैं। वे अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों से, गुरुजनों के उपदेशों के श्रवण से तथा उत्तम पुस्तकों के स्वाध्याय से हमेशा श्रेष्ठ विचारों का संचय करते रहते हैं। क्षुद्र स्वार्थों और दुराग्रहों में फंसने की उनकी आदत नहीं होती। उनके मन-वाणी-कर्म में एकता होती है अर्थात् वे जो मन में सोचते या विचार करते हैं, उसको ही अपनी वाणी में लाते या मुख से कहते हैं तथा जो बात कहते हैं, उसको करके भी दिखाते हैं। मनसा-वाचा-कर्मणा की एकता । के कारण वे अपने समाज में सबके विश्वासपात्र बन जाते हैं।
विद्यार्थी के जीवन का उद्देश्य विद्या की प्राप्ति करना है। आदर्श विद्यार्थी एकाग्र मन से अपने इसी लक्ष्य पर दृढ रहते हैं। वे नम्रता भाव के द्वारा अपने शिक्षक से विद्या की प्राप्ति करते हैं। जिस विद्यार्थी में नम्रता-भाव नहीं होता, र कभी भी शिक्षक की कृपा का पात्र नहीं बन पाता।
महात्मा गाँधीजी का कथन है-
“जिनमें नम्रता नहीं आती, वे लोग (विद्यार्थी) विद्या का पूरा सदुपयोग नहीं
कर सकते।”
नम्रता भाव से विद्या ग्रहण करने के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
यथा नवहिं बुध विद्या पाए।”
यदि कोई विद्यार्थी अपने अध्यापक के प्रति नम्रता-भाव दिखाकर विषय से सम्बन्धित प्रश्न अपने अध्यापक से बार-बार पूछेगा तो अध्यापक को जरा भी क्रोध नहीं आएगा, परन्तु यदि वह नम्रताहीन होकर या उद्दण्ड भाव से कोई भी सवाल करेगा तो अध्यापक को क्रोधावेश आना मामूली बात होगी।
नम्रता को सद्गुणों की जननी या माता कहा जाता है। अपने से बड़ों के प्रति नम्रता दिखाना विद्यार्थी का कर्तव्य है। अपने समान या बराबर के लोगों के प्रति नम्रता भाव विनयशीलता का सूचक है और अपने से छोटों के प्रति नम्रता रखना कुलीनता का द्योतक है।
आदर्श विद्यार्थी के जीवन में जिज्ञासा तथा सेवा भाव’ का भी बड़ा महत्त्व है। कहते हैं कि जिज्ञासा के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। जिज्ञासा तीव्र बुद्धि का स्थायी और निश्चित गुण है। विद्यार्थी के मन में अपने पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकों के प्रति जिज्ञासा का भाव पर्याप्त रूप से होना चाहिए तभी वह अपने विषय को हृदयंगम कर सकेगा और उसकी बुद्धि का भी समुचित रूप से विकास हो सकेगा।
जिस व्यक्ति के अन्दर किसी चीज को सीखने की ललक या जिज्ञासा होती है, उसके अन्दर एकाग्रता भी आ जाती है। जब विद्यार्थी की जिज्ञासा या रुचि केवल अपनी पुस्तक के विषय के अध्ययन की तरफ ही रहती है तो वह बिना कोई रुकावट के अपना पाठ पढ़ता रहता है और पाठ के विषय को अच्छे ढंग से समझ लेता है, परन्तु जब उसका ध्यान अपने पुस्तक से हटकर किसी दूसरे विषय में लग जाता है तो उसका मन पढ़ाई से बार-बार भटकता रहता है और सहजरूप से एकाग्र नहीं हो पाता।
एक कहावत है कि सेवा करने से ही मेवा या श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होती है। विद्यार्थी को चाहिए कि वह अपने सेवा-सत्कार से गुरुजनों को प्रसन्न रखे। तभी वह सहज रूप से उनसे विद्या की मेवा प्राप्त कर सकेगा। आजकल टयश की फीस देकर या उनका कोई छोटा-मोटा काम करके
विद्यार्थी अपने शिक्षक को प्रसन्न रखते हैं। धन से या किसी अन्य तरीके से अध्यापक को लाभ पहुँचाना ही उनकी सेवा करना है। जिन विद्यार्थियों को अपने शिक्षक, अध्यापक या गुरुजनों की सेवा करनी नहीं आती वे कभी उनकी कृपा का पात्र नहीं बन सकते । संस्कृत में एक श्लोक है-
गुरू शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धन मेवा।”
(अर्थात् विद्या गुरु की सेवा से या गुरु को पर्याप्त धन देकर अर्जित की जा सकती है।)
संयमयुक्त आचरण विद्यार्थी का प्रथम आदर्श है। जिन विद्यार्थियों के आचरण मैं संयम नहीं होता, वे कभी अपने शिक्षाकर्म में और जीवन में पूर्ण सफलता को प्राप्त नहीं कर सकते। विद्यार्थियों को अपने खान-पान, खेलकूद, पढ़ाई-लिखाई तथा निद्रा विश्राम में पूर्ण संयम बरतने की जरूरत है। आदर्श विद्यार्थी वह है। जो अपनी पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ खेलकूद और व्यायाम का भी ध्यान रखता है। इससे उसका मानसिक तथा बौद्धिक विकास होने के साथ-साथ शारीरिक विकास भी होता रहता है। लेकिन जिस प्रकार अपनी बौद्धिक या मस्तिष्क-क्षमता से ज्यादा पढ़ाई में मेहनत करना हानिकारक है, इसी प्रकार जरूरत से ज्यादा खेलना-कूदना भी विद्यार्थियों के जीवन को नुकसान पहुँचाता है।
एक आदर्श विद्यार्थी रात्रि को जल्दी सोकर प्रातःकाल शीघ्र उठता है। आमतौर से वह रात को दस बजे सोकर सुबह चार बजे ही उठ जाता है। इस प्रकार कुल छः घण्टों में उसे सुखदाई नींद तथा पूर्ण विश्राम प्राप्त हो जाता है। प्रातःकाल शीघ्र उठकर सद्बुद्धिदाता परमेश्वर परमपिता परमात्मा को याद करना श्रेयस्कर है। इससे विद्यार्थी के मन को असीम सुख शान्ति एवं आनन्द का अनुभव होता है। इसके बाद उसे अपना ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहिए। दस-पन्द्रह मिनट प्रभु का स्मरण करके वह पूरे डेढ़ या दो घण्टे तक अपनी पढ़ाई कर सकता है। आदर्श विद्यार्थी की दिनचर्या में भी संयम होता देखा जाता है। प्रातः छह बजे तक अपने अध्ययन आदि कार्य से निवृत्त होने के बाद उसे शौच तथा स्नानादि नित्यकर्मों के लिए जाना चाहिए। तत्पश्चात् नाश्ता या भोजन करके वह पढ़ने के लिए अपनी अध्ययनशाला में जाए तथा स्कुल अथवा कॉलिज में मन लगाकर अपनी पढ़ाई करे।
शाला में अध्यापक जिन पाठों को पढ़ाते हैं, उन्हें बड़े ध्यान से सुनना और समझना चाहिए। जिन विद्यार्थियों का ध्यान कक्षा की पढ़ाई में न होकर इधर-उधर की बातों में होता है, वे अपने विषय के पाठ को ठीक ढंग करनी पड़ती है। से नहीं समझ पाते। यही कारण है कि उनको परीक्षाओं के दिनों में बहुत मेहनत करनी पड़ती है।
स्कूल से घर लौटने के बाद स्कूल में दिए हुए गृहकार्य को पूरा किया जाता है लेकिन इससे पहले विद्यार्थी को कुछ भोजन आदि करके कुछ क्षण विश्राम करना चाहिए ताकि विद्यार्थी स्कूल की थकान को भूलकर कुछ ही समय में अपने आपको तरोताजा तथा स्वस्थ महसूस कर सके। इस हेतु कुछ देर खेलना-कूदना भी लाभकारी होता है। तत्पश्चात् कम-से-कम दो घण्टे अपने गृहकार्य में लगाने चाहिए। शाम को नाश्ता, भोजन आदि करके, एक-आध घण्टा मनोरंजन करने या सड़क पर टहलने के बाद फिर रात्रि को सोने से एक-दो घण्टे पूर्व पढ़ने में मन लगाना चाहिए। इस प्रकार पढ़ाई के साथ-साथ खेलकुद और मनोरंजन का भी ध्यान रखने से विद्यार्थी अपने सर्वांगीण विकास को प्राप्त कर सकेंगे।
कहते हैं कि अधिक भोजन खाने से आदमी साँड़ बन जाता है, अधिक खेलने-कूदने से वह अशिक्षित ही रह जाता है और अधिक पढ़ने से व्यक्ति किताबी कीड़ा बन जाता है। संस्कृत साहित्य में आदर्श विद्यार्थी के पाँच लक्षण बतलाए गए हैं-
काक-चेष्टा वको-ध्यानं, श्वान-निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच-लक्षणम।”
(अर्थातृ-विद्या की प्राप्ति के लिए विद्यार्थी के अन्दर कौए जैसी सतर्कता। होनी चाहिए, बगुले के समान एकाग्रचित्तता होनी चाहिए, जरा-सी आहट पाकर टूट जाने वाली कुत्ते जैसी निद्रा होनी चाहिए, उसे कम भोजन करना चाहिए तथा घर से दूर रहना चाहिए।)
विद्यार्थी के लिए परिश्रमी और स्वाध्यायी होना आवश्यक है। चाणक्य ने कहा है-
‘‘सुखार्थी को विद्या कहाँ ?
विद्यार्थी को सुख कहाँ ?
सुख को चाहे तो विद्या छोड़ दे,
विद्या को चाहे तो सुख को त्याग दे।”
‘परिश्रम’ से ही व्यक्ति को हर कार्य में सफलता मिलती है। यदि विद्या अपनी पढ़ाई में मेहनत करेगा तो उसे परीक्षाओं में सफलता अवश्य मिलेगी।
‘स्वाध्याय’ से तात्पर्य स्वयं का अध्ययन है। इस तरह के अध्ययन में विद्यार्थी खुद ही विषयवस्तु को पढ़कर पुस्तक से दिशा-निर्देश प्राप्त करता है। जब परीक्षाओं के दिन आते हैं तो स्कूल अथवा कॉलिजों की छुट्टियाँ आती हैं तथा विद्यार्थियों को खुद ही समझकर परीक्षाओं की तैयारी करनी पड़ती है। किसी जटिल विषय को समझने के लिए उन्हें एक से अधिक पुस्तकों का सहारा लेना पड़ता है।
जब छात्र स्वयं किसी विषय का अध्ययन करता है तब उसे अपने अज्ञान का पता चलता है। अपने विषय के पाठ को वह आसानी से समझ लेता है। स्वाध्याय के जरिए विद्यार्थी को विद्या के आनन्द की प्राप्ति होती है तथा उसके । अन्दर शिक्षा विषय के सम्बन्ध में विशेष योग्यता आती है।
संस्कृत में कहावत है-
“क्षण त्यागे कुतो विद्या”
(अर्थात् जो एक क्षण को भी नष्ट करता है, उसे विद्या प्राप्त नहीं हो सकती।)
“आलस्य कुतो विद्या, अविद्यनस्थ कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम, अमित्रम कुतो सुखम्?”
(अर्थात् आलस्य करने से विद्या कहाँ प्राप्त होती है। बिना विद्या के धन कहाँ प्राप्त होता है? बिना धन के मित्र कहाँ मिलते हैं और बिना मित्रों के सुख कैसे मिल सकता है?)
तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी को आलस्य में अपने जीवन का अमूल्य समय बर्बाद नहीं करना चाहिए तथा न ही बेकार की गप्पें हाँकने, बेकार में घूमने, सिनेमा के अभिनेता-अभिनेत्रियों की चर्चाएँ करने तथा व्यर्थ की निन्दा स्तुति में अपने समय को गंवाना चाहिए।
आदर्श-विद्यार्थी सदैव “सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धान्त का पालन करता हुआ सन्तोषप्रद जीवन व्यतीत करता है। फैशनेबल वस्त्रों, केशविन्यास और शरीर की सजावट आदि में समय और धन-दोनों की हानि होती है।
ऊपर बताई गई आदतों को अपनाने से विद्यार्थी का पवित्र मन दूषित या कलुषित हो जाता है फलस्वरूप उसके जीवन में असन्तोष एवं अशान्ति आती है तथा उसका स्वर्णिम जीवन मिट्टी में मिल जाता है।
यदि विद्यार्थी अपने मन में श्रेष्ठ विचार रखेगा तो उसका मस्तिष्क और शरीर भी स्वस्थ बना रहेगा।
कुछ विद्यार्थी अपने विषयों की पढ़ाई में इतने डूब जाते हैं कि दूसरों से मिलना-जुलना तथा बातचीत करना ही बन्द कर देते हैं। लेकिन विद्यार्थी को अध्ययन में जितना परिश्रमी व एकान्तसेवी होना चाहिए, उतना ही मिलनसार तथा व्यवहार कुशल भी होना चाहिए। उसके चेहरे पर उदासी और परेशानी के भाव होने के बजाय हर्षितपना, रमणीकता एवं सरलता होनी चाहिए। अपने मधुर वार्तालाप तथा कुशल व्यवहार से वह सबका हृदय जीतकर शीघ्र ही सच्चे और नेक इन्सान के रूप में समाज के अन्दर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकता है।
परोपकारिता, सदाचार तथा स्वावलम्बन की भावना आदर्श विद्यार्थी के विशिष्ट पहचान-चिह्न हैं। ‘रेडक्रॉस सोसायटी की शिक्षाएँ विद्यार्थियों के मन में पीड़ित मानव की सेवा करने का भाव पैदा करती हैं। इसी तरह ‘स्काउटिंग’ के जरिए विद्यार्थी देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाने तथा सामूहिक रूप से जनसेवा का कार्य करने की प्रेरणा प्राप्त करता है।
सदाचार को अपनाने से ही विद्यार्थी का जीवन सुन्दर और सफल बनता है। स्वावलम्बन का अर्थ है-अपना काम स्वयं करने की भावना। इस तरह की भावना को व्यक्ति अपने विद्यार्थी जीवन में ही सीखता है। जिन व्यक्तियों के अन्दर स्वावलम्बन की भावना नहीं होती, उनको पग-पग पर छोटे-मोटे कार्य के लिए दूसरों का मुख ताकना पड़ता है।
‘विद्यार्थी शब्द दो अक्षर समूहों की सन्धि (विद्या + अर्थी) से बना है। इसका मतलब यह है कि जिसके जीवन का अर्थ या उद्देश्य केवल विद्या को प्राप्त करना ही है-दही ‘विद्यार्थी है। यदि विद्यार्थी अपनी पढ़ाई से मन हटाकर सिनेमा, टी.वी., अतिशय खेलकूद, हँसी मजाक, गप्प, व्यर्थ के वार्तालाप तथा बेकार के कामों में मन लगाता है तो वह विद्यार्थी के आदर्श से कोसों दूर चला जाता है। एकाग्रमन से अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाने वाला, विनम्र, जिज्ञासु, सेवा-भावना वाला, संयमी, परिश्रमी, स्वाध्यायी, मिलनसार, व्यवहार कुशल विद्यार्थी ही अपने जीवन में वास्तविक सफलता को प्राप्त करता है।
निबंध नंबर :- 02
आदर्श विद्यार्थी
Adarsh Vidyarthi
भूमिका- विद्यार्थी जीवन मानवके जीवन की नींव है अगर नीव मजबूत है तो उसका जीवन विकास की ओर अग्रसर होगा नहीं तो आने वाले समय की मुसीबतों को सहन नहीं कर पाएगा। यदि एक छात्र ने अपने बचपन से ही परिश्रम, अनुशासन, समय और नियम का अच्छी प्रकार से पालन किया है तो उसका भावी जीवन सुखद और सुन्दर होगा। आज का विद्यार्थी ही कलका नेता होगा। एक सभ्य नागरिक के लिए जिन गुणोंकी आवश्यकता होती है, वे बचपन में विद्यार्थी के रूप में ही ग्रहण किए जाते हैं।
विद्यार्थी शब्द का अर्थ- विद्यार्थी शब्द संस्कृत भाषा के दो शब्दों के मेल से बना है- विद्या+अर्थी। इसका अर्थ है विद्या चाहने वाला अथवा वह जो विद्या की प्राप्ति के लिए विद्यालय में आता है। संक्षेप में कहा जा सकात है कि निरन्तर सीखता और किसी भी विषय का ज्ञान प्राप्त करना ही विद्यार्थी का मुख्य अर्थ है। विद्यार्थी काल में विद्यार्थी का मुख्य उद्देश्य ज्ञान ग्रहण करना है, सीखना है तथा भावी जीवन के लिए स्वयं को तैयार करना है। विद्यार्थी शब्द में ही आदर्श विद्यार्थी के गुण निवास करते हैं।
प्राचीन काल में विद्यार्थी जीवन- हमारे महार्षियों और मुनियों ने मानव जीवन को चार आश्रमों में बांटा है। वे चार आश्रय हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, सन्यास और वान प्रस्थ। ब्रह्मचर्य आश्रम ही विद्यार्थी जीवन है। उस काल में बालक पर परिवार से दूर आश्रम में विद्याध्ययन के लिए जाते थे। आश्रम में तपस्या, ब्रह्मचर्य, अनुशासन और गुरू सेवा करते हुए वे विद्या प्राप्त करते थे। स्वयं भगवान् श्री कृष्ण भी सदामा के साथ संदीपन महार्षि के आश्रम में विद्या प्राप्त करने गए।
आदर्श विद्यार्थी के गुण- संसार में गुणों से ही मनुष्य की पूजा होती है। गुणों द्वारा ही मनुष्य सर्वत्र ऊंचा स्थान प्राप्त कर सकता है। विद्यार्थी को कौवे के समान गतिविधि वाला, बगुले के समान ध्यान वाला, कुत्ते के समान नींद वाला. कम भोजन करने वाला और ब्रह्मचारी होना चाहिए। आदर्श विद्यार्थी वही कहा जा सकता है जिसने सबसे पहला गुण विनम्रता हो। यदि विद्यार्थी तीन दण्ड और उपद्रवी है तो वह कभी भी आदर्श विद्यार्थी नहीं बन सकता। ‘विद्या ददाति विनमय’ की उक्ति से पहले ‘श्रयावान लभते ज्ञानम्’ की उक्ति जीवन पर चरितार्थ होती है। अपने गुरुजनों के प्रति श्रद्धा का भाव तथा निरन्तर ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा है। विद्यार्थी-जीवन-जीवन की पहली सीढ़ी है। अनुशासन का भी जीवन में उतना ही महत्त्व है जितना कि विनम्रता का जो विद्यार्थी अनुशासन प्रिय है, यह मेधावी छात्र बनता है। लेकिन जो विद्यार्थी अनुशासनहीन होते हैं, वे अपने देश, अपनी जाति और माता-पिता आदि का अहित करते हैं।
सादा जीवन और उच्च विचार- आदर्श विद्यार्थी का मूल मन्त्र है- सादा जीवन और उच्च विचार। जो बालक विद्या प्राप्तिकाल में सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। उनका मन विद्या में लगा रहता है। आज का विद्यार्थी पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर फैशन परस्ती का शिकार बन रहा है। माता-पिता इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। सादा जीवन और उच्च विचार, खेल कूद और संतुलित भोजन तथा सुच्चरित्र के द्वारा आदर्श विद्यार्थी अपने गुरुजनों का प्रिय बनकर उनसे आर्शीवाद प्राप्त करता है, उनसे ज्ञान प्राप्त करता है तथा जीवन में सफल रहता है।
सुख चाहने वाला विद्यार्थी आदर्श विद्यार्थी नहीं हो सकता। विद्यार्थी सभी प्रकार के सुखों को व्याख्या है। एक-एक क्षण का उपयोग कर वह निरंतर अपने ज्ञान के भण्डार को भरता है। परिश्रम ही उसकी पूजा होती है। रात्रि के समय जब लोग सोते हैं तब आदर्श विद्यार्थी अपना अध्ययन करता है। सदाचार और स्वावलम्बन का गुण भी आदर्श विद्यार्थी में होना चाहिए। विद्यार्थी को अपना काम स्वयं करने की आदत डालनी चाहिए। इसी को स्वाब लम्बन कहते हैं। अगर कोई बालक दूसरों पर निर्भर करता है तो वह बड़ा होकर उन्नति नहीं कर सकता।
सयंम और परिश्रम- संयम और परिश्रम एक आदर्श विद्यार्थी का गुण है। एक आदर्श विद्यार्थी को अपनी इन्द्रियों और मन पर पूर्ण सयंम रखना चाहिए। समय पर सोना, समय पर उठना, समय पर भोजन करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और निरन्तर परिश्रम करना एक अच्छे विद्यार्थी का गुण है। सयम-नियम का पालन करने से ही विद्यार्थी का मन अध्ययन में लगता है। परिश्रम के बिना विद्या नहीं आती। जो सुख चाहता है उसे विद्या नहीं मिलती और जो विद्या चाहता है उसे सुखों का त्याग करके परिश्रम करना पड़ता है।
आज एक आदर्श विद्यार्थी के लिए खेल में भाग लेना भी अनिवार्य है। जो विद्यार्थी खेल कूद में भाग न लेकर केवल किताबी कीड़े बने रहते हैं, वे शीघ्र ही रोगी हो जाते हैं। खेल कूद में भाग लेने से विद्यार्थी सयंम और परिश्रम आवश्यक है। के नियमों को सीखता है। एक आदर्श विद्यार्थी को उन सव गणों को अपनाना होगा जो उसके विकास के लिए।
निबंध नंबर :- 03
आदर्श विद्यार्थी
An Ideal Student
विचार-बिन्दु- • विद्यार्थी के गुण • लगन और परिश्रम • सादा जीवन उच्च विचार • अनुशासनप्रिय • स्वस्थ और बहुमुखी।
विद्यार्थी का सबसे आवश्यक गुण है-जिज्ञासा। जिज्ञासा-शून्य छात्र उस औंधे घड़े के समान होता है जो बरसते जल में भी खाली रहता है। विद्यार्थी का दूसरागुण है-परिश्रमी होना। जब जिज्ञासा और परिश्रम साथ-साथ चलते हैं तो विद्यार्थी तेजी से ज्ञान अर्जित करता है। विद्यार्थी के लिए आवश्यक है कि वह आधनिक फैशनपरस्ती, फिल्मी दुनिया या अन्य रंगीन आकषणा से बचे। ये मायावी आकर्षण उसे चाहते हुए भी पढ़ने नहीं देते। विद्यार्थी को ऐसे मित्रों के साथ संगति करनी चाहिए, जो उसा के समान शिक्षा का उच्च लक्ष्य लेकर चले हों। श्रद्धावान और विनयी को ही जान की प्राप्ति होती है। जिस छात्र के चित्त में अपना ज्ञानी होने का घमंड भरा रहता है, वह कभी गुरुओं की बात नहीं सुनता। उसकी यह आदत उसकी सबसे बड़ी बाधा है। छात्र के लिए अनुशासनाप्रय होना आवश्यक है। अनुशासन के बल पर ही छात्र अपने व्यस्त समय का सही सदुपयोग कर सकता है। आदर्श छात्र पढ़ाई के साथ-साथ खेल-व्यायाम और अन्य गतिविधियों में भी बराबर रुचि लेता है।