आरक्षण
Aarakshan
भूमिका- जैसे तो पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था स्वतन्त्रता प्राप्ति के काल से चली आ रही वर्ष 1990-91 सरकार की आरक्षण सम्बन्धी घोषणा से समूचे देश में हलचल उत्पन्न हो गई। भूतपूर्व साली श्री वी० पी० सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का निर्णय लिया। देश के बड़े-बड़े नगरों में आरक्षण के विरुद्ध आन्दोलन उठ खड़े हुए। प्रधानमन्त्री की हठ धर्मी के कारण अरबों रुपयों की समाप्ति नष्ट हो गई। समूचा भारत घृणा और द्वेष की भावना से झुलसने लगा। आरक्षण शब्द अंग्रेजी के शब्द ‘रिजर्वेशन’ का हिन्दी रूपांतरण है जिसका प्रथम प्रयोग सन 1909 में लार्ड मिन्टों ने किया था। इसके अनुसार भारत के कुछ वर्गों को निर्वाचन में पृथक प्रतिनिधित्व देने की बात उठाई गई थी। इसकी पूर्ति के लिए संविधान के अनुच्छेद 341-342 में प्रावधान है जिसके अनुसार इन जातियों को राजनीति, शिक्षा, अर्थ व्यवस्था तथा संस्कृति के क्षेत्र में अनेक सुविधाएं दी गई।
अर्थ एवं स्वरूप- आरक्षण का शाब्दिक अर्थ सुरक्षित । अर्थात समाज की पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों को सुरक्षित रखना। आरक्षण की यह व्यवस्था दस वर्षों के लिए थी। परन्तु हमारे देश की विडम्बना है कि जिसको जो सुविधा मिल जाती है, वह उसे छोड़ना नहीं चाहता। अत: आरक्षण की अवधि निरन्तर बढ़ती जा ही है।
प्राचीन वर्ण-व्यवस्था- हमारे देश ऊंच-नीच, जाति-पाति का भेदभाव प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। मनुस्मृति में समाज को कर्म के आकार पर चार भागों में बांटा गया। लोगों ने स्वेच्छा से और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने कर्म को चुना। परन्तु धीरे-धीरे यह वर्गीकरण पक्का बन गया। एक जाति में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति उसी कर्म को अपनाने लगा भला ही वह उसके योग्य हो अथवा न हो। समाज के पाखण्डी लोगों ने समाज की सेवा करने वाले वर्ग को शुद्र कह कर अछूत बना दिया। जहां ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों को समाज में आदर मान मिलता था, वहां इस वर्ग को सर्वथा अपमानित किया गया। यह वर्ग व्यवस्था समाज के लिए अभिशाप बनकर रह गई। शूद्र कहे जाने वाले समाज के बड़े सेवक और तपस्वी हैं। रामायण में भगवान् राम ने गुहराज, निषाद और शबरी को उचित सम्मान दिया।
आरक्षण की व्यवस्था- आजादी से पूर्व राष्ट्रपिता गाँधी ने शुद्रों को ‘हरिजन’ की संज्ञा दी और राष्ट्रीय भावधारा में इनको मिलाने का भरसक प्रयास किया। स्वतन्त्रता के बाद सरकार ने हरिजनों तथा अन्य पिछड़ी जातियों के लिए अनेक योजनाएं बनाई। आरक्षण की व्यवस्था उन योजनाओं में से एक महत्त्वपूर्ण कदम है। उस समय आरक्षण का अर्थ था कि समाज का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग लम्बे काल से दीन-हीन जीवन यापन कर रहा था। यदि ऊंची जाति के लोग जीवन की सुख सुविधाओं को भोग सकते हैं तो ये लोग क्यों नहीं? अत: आरक्षण का उद्देश्य पिछड़े हुए लोगों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है।
आरक्षक के पक्ष और विपक्ष में तर्क- पिछड़ा वर्ग आयोग श्री वी० पी० मण्डल की अध्यक्षता में गठित किया गया जिसमें 6 सदस्य थे। आयोग ने अपनी सिफारिशों में आरक्षण की मात्रा और योजना का विस्तृत ब्यौरा दिया गया तथा 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। यह रिपोर्ट अनेक कारणों के कारण सामने नहीं लाई गई और इन्दिरा गाँधी के शासन के दौर में इस पर चर्चा नहीं हुई। जब राष्ट्रीय मोर्चा सरकार केन्द्र में बनी तो वी० पी० सिंह ने प्रधानमन्त्री के रूप में इस मण्डल की रिपोर्ट को पेश किया। 13 अगस्त 1990 को केन्द्रीय सरकार ने इसे लागू करने की घोषणा कर दी। इस घोषणा से सारा उत्तरी भारत एक क्रोध और रोष की आग से जल उठा। विद्यार्थियों सरल और कॉलेज बन्द करवा दिए और आत्मदाह करने लगे। दिल्ली में राजीव गोस्वामी की आत्मदाह के प्रयास की घटना से दिल्ली के सभी विद्यार्थी भड़क उठे।
वास्तव में इस निर्णय से देश भर में आतंक की दशा हो गई थी। वी० पी० सिंह ने गली और मुहल्लों में वैमनस्यता के बीज बो दिए थे। पिछड़ी जातियों के विकास में सहायता करने का किसी में विरोध न ही किया पर राजनैतिक भूख ने उसे उल्टा रूप दे दिया। आरक्षण के सम्बन्ध में यह अवश्य विचारनीय है कि इससे अधिक प्रतिभाशाली युवकों को इसका शिकार होना पड़ता है। अत: यह देश के ही विकास के लिए घातक सिद्ध हो सकताहै। आरक्षण की व्यवस्था केवल दस वर्षों के लिए की गई थी। परन्तु इस अवधि को बार-बार बढ़ाया जाता रहा है। परिणाम स्वरूप अन्य जातियों में विरोध पनपने लगा। स्वर्ण जातियों में ऐसे करोड़ों लोग हैं जो गरीबी के स्तर के बीच जीवन बिता रहे हैं। न तो वे शिक्षित हैं और न ही उनके पास उचित रोजगार के साधन हैं। उनकी दशा दिन प्रति दिन और भी हीन होती जा रही है। जातिगत आधार पर आरक्षण देने से अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर अयोग्य व्यक्ति आसीन है जिससे प्रशासन पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा है।