आदर्श विद्यार्थी
Aadarsh Vidyarthi
विद्यार्थी अवस्था भावी जीवन की आधारशीला होती है। यदि नींव दृढ़ है तो उस पर भवन भी चिरस्थाई बन सकेगा अन्यथा भयानक आँधियों के थपेड़े, तूफान और अनवरत वर्षा उसे थोड़े ही दिनों में धराशायी कर देंगे। इस प्रकार यदि बच्चों का छात्र जीवन परिश्रम, अनुशासन, संयम एवं नियम में व्यतीत हुआ है, यदि छात्रावस्था में उसने मन लगाकर विद्याध्ययन किया है, यदि उसने गुरुओं की सेवा की है, यदि वह अपने माता-पिता तथा गुरुजनों के साथ विनम्र रहा है, तो निश्चय ही उसका भावी जीवन सुखद एवं सुंदर होगा। सभ्य नागरिक के लिए जिन गुणों की आवश्यकता है उन गुणों की प्राथमिक पाठशाला विद्यार्थी जीवन ही है। विद्यार्थी जीवन उसी सुंदर साधनावस्था का समय है, जिनमें बालक अपने जीवनोपयोगी अनन्त गुणों का संचय करता है। ज्ञानार्जन करता है और अपने मन एवं मस्तिष्क का परिष्कार करता है।
विद्यार्थी को विनम्र होना चाहिए। गुरुजनों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता परमावश्यक है। यदि विद्यार्थी उदंड है, उपद्रवी है, या कटुभाषी है तो वह कभी भी अपने अध्यापकों का कृपापात्र नहीं हो सकता। एक आदर्श विद्यार्थी को विनम्र होना चाहिए। नम्रता के साथ-साथ उसे अनुशासन प्रिय भी होना चाहिए। जो विद्यार्थी अनुशासनहीन होते हैं वे अपने देश, अपनी जाति, अपने माता-पिता, अपने गुरुजन और अपने कॉलेज के लिए आदर्श विद्यार्थी है और न ही बौद्धिक। वह उन गुणों से सदैव के लिए वंचित हो जाता है, जो मनुष्य को प्रतिष्ठा के पद पर आसीन करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन का विशेष महत्व है। अनुशासित छात्र ही आदर्श विद्यार्थी की श्रेणी में आ सकता है। आज के युग का छात्र अनुशासनहीनता दिखाने में अपना गौरव समझता है, इसलिए देश में सभ्य नागरिकों का अभाव सा होता चला जा रहा है, क्योंकि आज का विद्यार्थी ही कल का नागरिक बनता है।
बिना श्रद्धा के न आप कुछ पा सकते हैं और न ही कुछ दे सकते हैं। श्रद्धा से पाषाण तक फल देने लगता है, फिर कोमल हृदय गुरुजनों की तो बात ही क्या, क्योंकि-‘श्रद्धावान लभते ज्ञानम्’। ज्ञान तो श्रद्धावान को ही प्राप्त होता है। यदि आपमें अपने गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं है तो आप उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। आदर्श विद्यार्थी में नवीन वस्तु और नये विषय के प्रति उत्कंठा एवं जिज्ञासा होनी चाहिए तभी वह कुछ प्राप्त कर सकता है। क्योंकि ज्ञान का भंडार अमिट है, गुरु भी आपको कहाँ तक देंगे। जिन विद्यार्थियों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति नहीं होती वे कक्षा में मूर्ख बने बैठे रहते हैं और दूसरों का मुँह ताका करते हैं।
विद्यार्थी जीवन संयमित तथा नियमित होना चाहिए। जीवन के नियमों का उचित रीति से पालन करने वाले विद्यार्थी जीवन में कभी भी असफल नहीं होते। विद्यार्थी को अपनी इन्द्रियों और अपने मन पर संयम रखना चाहिए। समय पर सोना, समय पर उठना, नियमित रूप से विद्याध्ययन करना, संतुलित भोजन करना, सदैव अपने से बड़ों की संगति में बैठना, दूषित एवम् कलुषित विचारों से दूर रहना, ये आदर्श विद्यार्थी के आवश्यक गुण हैं। जो विद्यार्थी अपने जीवन में संयम और नियम का ध्यान नहीं रखते वे अस्वस्थ रहते हैं, पढ़ने में उनका ध्यान नहीं लगता। उनका मन चंचल होता है। इसलिए विद्यार्थी जीवन की सफलता संयम और नियम पर आधारित है।
विद्यार्थी को स्वाध्यायी और परिश्रमी होना चाहिए। बिना परिश्रम के विद्या नहीं आ सकती। विद्यार्थी को सदैव परिश्रम करना चाहिए। कक्षा में पढ़ाए करना चाहिए। कक्षा में ही नहीं, घर जाकर भी परिश्रम से उस विषय को याद करना चाहिए। कक्षा की पुस्तकों के अतिरिक्त उसे अन्य साहित्यिक पुस्तकों का भी स्वाध्याय करना चाहिए जिससे साहित्य के विभिन्न अंगों का ज्ञानवर्द्धन होता रहे। स्वाध्याय के प्रति मनुष्य को कभी भी प्रमाद या आलस्य नहीं करना चाहिए।
आज विद्यार्थियों में एक वर्ग ऐसा है जो स्वतंत्र जीवन बिताना चाहता है। उसे न अध्यापक समझ पा रहे हैं और न ही अभिभावक। न उसके ऊपर शासन का नियंत्रण है, न जनता का। सर्वत्र स्वतंत्र होकर पतन के कगार पर खड़ा हुआ वह एक धक्के की प्रतीक्षा कर रहा है। नं उसे माता-पिता की लज्जा है और न गुरुजनों की, न समाज का भय है और न साथियों का, न मरने की चिन्ता है न मर्यादा की। आज के विद्यार्थी को विनम्रता, अनुशासन और आज्ञापालन से घृणा होती जा रही है।
यदि आज विद्यार्थी भारतवर्ष का सुयोग्य नागरिक बनना चाहता है, यदि उसे अपनी आत्मोन्नति की इच्छा है, यदि वह माता-पिता के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण कर्त्तव्य का पूर्ण रूप से निर्वाह करना चाहता है, तो उसे वे गुण अपनाने होंगे जिनमें उसका उत्थान निहित है। उसे अपना चरित्र सुधारना होगा उसे अपने गुरु के प्रति वे ही पुरातन सम्बन्ध स्थापित करने होंगे जो आज से दो सौ वर्ष पहले थे। तभी भारतवर्ष का विद्यार्थी आदर्श विद्यार्थी, कहलाने का अधिकारी हो सकता है।