अनेकता में एकता
Anekta main Ekta
आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पथों और विवि मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक जरूरी हो गया है कि लोग एक-दूसरे को जानें; उनकी जरूर को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें। उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों. पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दा भारत जैसे देश में यह और भी अधिक जरूरी है, क्योंकि यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारा धारा का नहीं है। स्वामी विवेकानइस बात को समझते थे और अपने आचार-विचार में अपने समय से बहत आगे थे। उनका दढ मत था कि विभिन्न धर्मो-संप्रदायों के बीच संवाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज और स्वाभाविक मानते थे। स्वामीजी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुद्ध थे। वे कहा करते थे- यदि सभी मानव एक ही धर्म को मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा।