एक आदर्श विद्यार्थी
An Ideal Student
विद्यार्थी शब्द विद्या अर्थी से बना है, जिसका अर्थ है-विद्या या ज्ञान का दळको इसलिए हमारी दृष्टि से आदर्श विद्यार्थी वहीं है, जो विद्या प्राप्त करता है। विद्या को चाहने वाला विद्यार्थी कहलाता है। विद्यार्थी-भावी जीवन की आधारशिला है। यदि नींव दृढ़ हो तो उस पर भवन चिरस्थाई बनेगा. अन्यथा भयानक आँधियाँ, तूफान और वर्षा उसे कुछ ही दिनों में धराशायी कर देंगे। यदि बालक का विद्यार्थी जीवन परिश्रम, अनुशासन, संयम एवं नियम से व्यतीत हुआ है, छात्रावस्था में उसने मन लगाकर परिश्रम किया है, उसने अपने माता-पिता तथा गुरूजनों की सेवा व आज्ञा का पालन किया है तथा उनके प्रति विनम्र रहा हैं, तो निश्चय ही उसका भावी जीवन सुखद एवं सुंदर होगा। आज का विद्यार्थी ही कल का भविष्य है।
आदर्श विद्यार्थी नियमित रूप से विद्या प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार कोई घटना क्यों घटी, उसके जीवन जगत पर क्या प्रभाव पड़ा आदि के बारे में भी जानना चाहता है, इन गुणों के अलावा आदर्श विद्यार्थी में और गुण भी होने चाहिए। बिना प्रयत्न के विद्या जैसी दुर्लभ वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती। ज्ञान बड़ा ही सूक्ष्म होता है, उसे ग्रहण करना उससे भी कठिन होता है, इसलिए बिना ध्यान के कुछ नहीं सीखा जा सकता। जो छात्र अपने अध्यापक की बात को ध्यानपूर्वक नहीं सुनते, वे पाठ्य-वस्तु को नहीं समझ सकते। इसी प्रकार पाठ को समझने के लिए पुस्तक का ध्यान पूर्वक आवश्यक है। हल्की नींद आना भी विद्यार्थी के लिए आवश्यक है। कुभकरणी नींद वाला विद्यार्थी भला क्या पढ़ सकता है? मानव जीवन सीमित है और ज्ञान असीमित हैं।
विद्यार्थी को विनम्र होना चाहिए। गुरू से विद्या प्राप्त करने के लिए नम्र होना आवश्यक है। कहा भी गया है कि गुरू से ज्ञान प्राप्त करने के केवल तीन उपाय हैं-नम्रता, जिज्ञासा और सेवा। नम्रता का सबसे पहला स्थान है। विद्या छात्र को विनयशील बनाती है। नम्रता के साथ-साथ विद्यार्थी को प्रयत्नशील भी होना चाहिए। अनशासनहीन विद्यार्थी का न तो मानसिक विकास होता है और न ही बौद्धिक। इसलिए वह इन गुणों से सदैव के लिए वंचित रह जाते हैं, जो मानव को प्रतिष्ठा के पद पर आसीन कराते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन का विशेष महत्व है। अतः विद्यार्थी, को अनुशासित होना चाहिए।
विद्या ग्रहण करने के लिए श्रद्धा का होना बहुत आवश्यक हैं। श्रद्धा से तो पाषाण तक फल देने लगता है फिर कोमल हृदय गुरूजनों की तो बात क्या है? क्योंकि श्रद्धावान लभते ज्ञानम्’ अर्थात श्रद्धावान को ही ज्ञान की प्राप्ति । यदि छात्र में गुरू के प्रति श्रद्धा नहीं तो वह विद्या प्राप्त नहीं कर होती सकता।
विदयार्थी को स्वाध्यायी तथा परिश्रमशील होना चाहिए, बिना श्रम के विद्या नहीं आती, विद्यार्थी को अपने सुख की चिंता नहीं करनी चाहिए।
विद्यार्थी को समय के अपव्यय या दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। विद्यार्थीयों के लिए समय बहुत मूल्यावान है। एक आदर्श विद्यार्थी के लिए कुछ खेल का होना भी आवश्यक है। इससे शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है तथा मनोरंजन भी होता है। हर समय किताबी कीड़ा बना रहना भी हानिकारक है। एक आदर्श विद्यार्थी अपना समय कभी व्यर्थ बातो में नहीं बिताता है।