मित्रता और इसका महत्व
Mitrata aur Iska Mahatva
मित्र होने का धर्म या भाव मित्रता है। प्रसिद्ध विचारक बेकन के अनुसार, ‘जिसकी उपस्थिति में दुख आधा हो जाए और सुख दोगुना हो जाए’ वह मित्र है। जिसके मित्र नहीं है वह वस्तुतः निर्धन है। मित्र व साथी में भिन्नता है। साथ रहने मात्र से कोई व्यक्ति मित्र नहीं कहला सकता। कहा गया है ‘समान शील, व्यसनेषु मित्रता’ अर्थात् जिन व्यक्तियों के विचार, रुचि, रुझान, शील, और व्यसन एक समान होते हैं वही मित्र कहलाते हैं। मित्रता वास्तव में हृदय का संबंध है। मित्रता इस संसार में ईश्वर की अमूल्य भेंट है।
मित्र के अभाव में व्यक्ति मकड़ी की भाँति अकेला ही अपने हर्ष-विषाद के ताने-बाने में उलझ जाता है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति को एक ऐसे विश्वस्त साथी की आवश्यकता अनुभव होती है, जिस पर वह पूरा भरोसा कर सके। जीवन में संघर्ष से जूझने की ताकत एक मित्र ही दे सकता है। मित्र के चुनाव में हमें अनेक सावधानियाँ बरतनी चाहिए। किसी ने ठीक ही कहा है
साईं या संसार में, मतलब को त्यौहार।
जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताकौ यार।।
तब लगि ताकौ यार, संग ही संग डोले।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोले।।
मित्रता का प्रभाव चाहे बिना पड़ता है इसलिए मित्रता सोच-विचार कर करनी चाहिए। राम-सुग्रीव की मित्रता, दुर्योधन-कर्ण की मित्रता, कृष्ण सुदामा की मित्रता के उदाहरण हमें आदर्श मैत्री का संदेश देते हैं। वस्तुतः। मित्रता वह बेल है जो स्नेह, सहिष्णुता, सहायता और सहानुभूति का जल पाकर बढ़ती है और जिसमें स्वर्णिम उल्लास के फूल लगते हैं।