होली – जवानी का त्योहार
Holi – Jawani ka Tyohar
फागुन जवानी का त्योहार है। जिधर देखो उधर जवानी की ही बहार दिखाई देती हैं। खेत जवान, फसले जवान, किसान को उम्मीदें जवान। गेहूं का बाले निकल आई हैं जो पकने को तैयार खड़े हैं। चनों में दाने पड़ चुके हैं। सरसों और अलसी में कुछ ही देर है। सब फसलें एक साथ काटने को तैया खड़ी हैं। किसी का घर अनाज के दानों से भर जाएगा। कुठारों के भाग जाग पशुओं के लिए नया चारा निकलेगा। इन्हीं उम्मीदों पर, लहलहाते खता देखकर किसान का दिल खुशी से नाच उठता है।
नाचे भी क्यों ना? असाढी की फसल ही तो उसका असली तरी है। उसने असाढ़ से लेकर बरसात-भर खेतों में कड़ी जुताई की, बाग की जुताई की, बीज बोए, पानी दिया और पाल-पोसकर बड़ा किया। आज वे खेत सोना उगल रहे हैं। किसान की कड़ी मेहनत फल ला रही है। भला अब वह खुश क्यों न हो? नाचे क्यों न? किसान एक नजर अपने लहलहाते खेतों की ओर डालता है और दूसरी दूर अपनो माटी की कुटिया पर गुदगुदाये हृदय से वह पहली बार गेहूं की कुछ बालें और चनों की कुछ टहनियां तोड़ता है।
असाढ़ का यह पहला उपहार झोली में ले जाते हुए वह इतना खुश है कि मानो आकाश से तारे तोड़ लाया है और उनसे अपने बाल-बच्चे और पड़ोसियों की झोलियां भरने जा रहा है। किसान अपने आंगन में अलाव जलाता है। अलाव में गेहूं और चने को टहनियां साबुत ही डाल देता है। गांव-भर को होला खाने का न्योता देता है। वह अमीरों को बुलाता है। आज इसका कोई दुश्मन नहीं है। साल-भर में किसी के साथ कुछ मनमुटाव हो भी गया तो आज होला के अधभुने दानों में उसे भुला देना चाहता है। आज वह सारे गांव से गले मिलकर होली खेलना चाहता है। इसी तरह घर-घर में और गांव में होला खिलाए जाते है और होलो मनाई जाती है।
होली के दिन सब काम बन्द रहते हैं। लोग मंडलियां बनाकर घरों से बाहर निकल पड़ते हैं। बाहर उन्हें खेत-खेत में, पेड़-पेड़ पर फागुन खिलखिलाता हुआ नज़र आता है। पात-पात पर फागुन नाचता हुआ दीख पड़ता है।
सब टेसू के फूलों का रंग बनाकर हाथों में रख लेते हैं। युवक युवकों के माथे पर तिलक लगाते हैं।युवतियां युवतियों की मांग में रंग भरती हैं। बालक पिचकारियों में रंग भरकर आपस में फाग खेलते हैं। थोड़ी देर के लिए बूढ़े भी जवान बन जाते हैं। जवान भी बालक बन जाते हैं। और फाग की खुशी में सब मिलकर एक हो जाते हैं। चारों तरफ खुशी और खुशबू छा जाती है। गांव की लड़कियां एक-दूसरे के गले में बांहें डालकर फाग गाने लगती है।
“मन बैठो बसन्त निहारो रे!
उठ होली खेलो बनजारो रे !!
जवान दंगल खेलने लगते हैं। पहलवान अखाड़े में कूद पड़ते हैं। नट और गवैये नाटक खेलने और रास रचाने लगते हैं। जो जैसे चाहता है। वैसे ही अपने मन की खुशी प्रकट करता है। इस तरह हंसते-खेलते, मिलते-मिलाते हुए। होला खाए जाते हैं। नाचते गाते हुए होली खेली जाती है।