Hindi Essay on “Dahej Pratha Samajik Kalank”, “दहेज प्रथा सामाजिक कलंक”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

दहेज प्रथा सामाजिक कलंक

Dahej Pratha Samajik Kalank

 

दहेज-प्रथा के कारण समाज की प्रतिष्ठा तथा मर्यादा को बट्टा लगता है इसलिए इसे ‘समाज का कलंक’ कहा जाता है। इस प्रथा ने वर्तमान सामाजिक जीवन को विषाक्त बना दिया है।

विवाह से पहले और विवाह के पश्चात् दहेज प्रथा स्त्री के वैवाहिक जीवनमें भूत-पिशाच की तरह मँडराती रहती है, उसे नोंचती खसोटती रहती है। यह समस्या स्त्री के वैवाहिक आनन्द तथा दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति में बड़ी बाधा डालती है।

दर्शन शास्त्र में विवाह प्रेम की एक ऐसी व्यवस्था है जो मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा इन्द्रियों के विकास का साधन है। दहेज की समस्या नारी के शरीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक जीवन की खुशहाली को नुकसान पहुँचाती है।

जब ससुराल पक्ष के लोग इच्छित दहेज न मिलने के कारण नववधू पर व्यंग्यों के तीखे एवं कठोर बाण छोड़ते हैं तो बहू का मन अन्दर-ही-अन्दर निराश एवं दुःखी हो जाता है। सास-ससुर के व्यंग्य-बाण झेलते उसका मन छलनी जैसा हो जाता है।

लड़की चाहे कितनी ही पढ़ी-लिखी एवं सुन्दर क्यों न हो, वह उत्तम प्रकार का भोजन बनाना, सिलाई-कढ़ाई करना, तरह-तरह के व्यंजन बनाना जानती हो, लेकिन दहेज के लोभ के आगे वर पक्ष के लोग इन सब चीजों को अधिक महत्त्व नहीं देते। उन्हें इसके बावजूद दहेज की मोटी रकम चाहिए होती है।

शेक्सपीयर के एक नाटक ‘स्काई लार्क’ में एक व्यक्ति अपने पुत्र की शादी में लड़की के पिता से उसका एक किलो मांस लेने की माँग रखता है। जबरदस्ती किसी लड़की के माता-पिता से दहेज की माँग रखना उनका मांस काटकर की तरह है।

कन्या की शादी में हर माँ-बाप खुशी-खुशी ज्यादा-से-ज्यादा दान-दहेज उपद्र के रूप में देना चाहता है लेकिन जब उनको जबरदस्ती उनकी हैसियत से ज्यादा दहेज देने के लिए लड़के वालों की तरफ से दबाव डाला जाता है तो लड़की के माता-पिता को दुःख होता है।

हमारे देश में दहेज-प्रथा के विरोध में कानून बना तो है लेकिन कानुन का मुँह रिश्वत के लड्डू से बन्द कर दिया जाता है और दहेज के लेन-देन को खुली आँखों से देखते हुए भी पुलिस प्रशासन कुछ नहीं कहता है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि जो लोग दहेज के विरोध में नारे लगाते हैं तथा इसे ‘समाज पर कलंक’ तथा ‘समाज पर बदनुमा दाग’ कहकर चिल्लाते हैं, वे ही लोग अपने पुत्रों की शादियों में मनमाना दहेज लेते हैं तथा दहेज की रकम पूरी न मिलने पर कभी वधू को और कभी उसके माता-पिता को बुरा-भला कहकर उससे धन ऐंठने की कोशिश करते हैं।

हमारे समाज में दहेज की माँग दिन पर दिन सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही है। इस सुरसा राक्षसी के मुख ने न जाने कितनी निर्दोष अबला नारियों पर जुल्मोसितम ढहाये हैं और न जाने कितनी मासूम नारियों की जान ली है।

दहेज का दानव प्रकाश के बीच अन्धकार के अट्टहास की तरह है। यह मानवीय सभ्यता की निशानी नहीं बल्कि एक आसुरीयता है और समाज पर सबसे बडा कलंक है। दहेज की कुप्रथा मानवता पर दानवता की विजय का प्रतीक है। हमें इस तरह की दानवता को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रबन्ध करना चाहिए।

समाज में दहेज-प्रथा का बोलबाला होने के कारण वर (लड़कों) की खुलेआम बिक्री होने लगी है। दहेज के लोभी पिता अपने पुत्र के विवाह में पुत्र की बोलियाँ लगाते हैं और जो उस बोली के अनुकूल रकम अदा कर देता है, उसी की पुत्री के साथ पुत्र का विवाह कर दिया जाता है।

आज का उपभोक्तावादी समाज दहेज प्रथा का समर्थन करता हुआ इसे बढ़ावा देता है। यदि दहेज के कलंक को शीघ्र न धोया गया तो भविष्य में इसीतरह हजारों लाखों बहुएँ दहेज की अग्निचिता में भस्म होती रहेंगी।

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