Hindi Essay on “Sanskriti aur Sabhyata”, “संस्कृति और सभ्यता”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

संस्कृति और सभ्यता

Sanskriti aur Sabhyata 

 

‘सम्’ उपसर्ग के साथ संस्कृत की ‘कृ’ धातु के पश्चात् ‘क्तिनु’ प्रत्यय लगाकर जो शब्द बनता है, उसे ‘संस्कृति’ (सम्+कृ+क्तिन्) कहा जाता है।

‘संस्कृति’ का अर्थ है-‘संस्कार करने वाला’ अथवा वस्तु को संस्कृत रूप देने की क्रिया या भावना।

इस मानक परिभाषा के अलावा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों एवं विद्वानों ने संस्कृति की परिभाषाएँ अलग-अलग प्रकार से दी हैं, जैसे-

  1. श्री राजगोपालाचार्य कहते हैं-“किसी भी जाति अथवा राष्ट्र के शिष्ट पुरुषों में विचार वाणी एवं क्रिया का जो रूप व्याप्त है-उसी का नाम संस्कृति है।

  1. स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती लिखते हैं-“मनुष्य के लौकिक-पारलौकिक उत्थान के लिए जो आचार-विचार तथा व्यवहार-प्रक्रियाएँ अपनाई जाती हैं-संस्कृति उसी को कहते हैं।”

  1. छायावाद की प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं-“जीवन के अन्तः और बाह्य विकास-क्रम में जो मूल्य और जीवन पद्धति बनती चलती है, वही देश-विदेश या जाति विशेष की संस्कृति है।”

  1. स्वामी करपात्री जी कल्याण पत्रिका के ‘हिन्दू संस्कृति अंक’ में लिखते हैं-

लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक अभ्युदय के उपयुक्त देहेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि की भूषण भूत सम्यक्, चेष्टाएँ एवं हलचलें ही संस्कृति है।”

  1. डॉ. नगेन्द्र के अनुसार-संस्कृति जीवन की उन सूक्ष्मतर तत्त्वों की संस्कृति का नाम है, जिससे मानव चेतना का संस्कार होता है।”

  1. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदीजी कहते हैं-

“जीवन की विविध साधनाओं की सर्वोत्तम परिणति संस्कृति है।“

  1. राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त के अनुसार मानव के युगों से संचित श्रेष्ठ संस्कार, ऋषि-मुनियों के उच्च विचार तथा धीरवीर पुरुषों के व्यवहार ही भारतीय संस्कृति की पहचान तथा संस्कृति के शृंगार हैं।”

डॉ. श्रीधर ने संस्कृतिकी व्याख्या करते हुए कहा है

“जाति, राष्ट्र आदि संघों के चरित की जो सम्पूर्णता है, उसकी भाषा शास्त्रात्मक अभिव्यक्ति ही ‘संस्कृति’ शब्द द्वारा होती है।”

समाजशास्त्र में पाश्चात्य विद्वान् हॉबल ने संस्कृति के बारे में कहा है-

“संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों का योग है जो किसी समाज के सदस्यों की विशेषता है, जो कि प्राणी शास्त्रीय विरासत का परिणाम नहीं है।’

क्रोबर एवं क्लूखौन नामक प्रसिद्ध समाज शास्त्रियों ने संस्कृति की परिभाषाओं का संकलन करके बताया है कि इस शब्द की 108 परिभाषाएँ हैं। संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है। ‘संस्कृत’ और ‘संस्कृति’ दोनों शब्द ‘संस्कार’ से बने हैं। ‘संस्कार’ का अर्थ है-शुद्धि की क्रिया’ अर्थात् संस्कृति का सम्बन्ध उन सभी कृत्यों, विचारों एवं व्यवहार से है जो व्यक्ति का परिष्कार करें, उसे शुद्ध बनाएँ।

टॉयलर के मुताबिक-

“संस्कृति वह सम्पूर्ण जटिलता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा और ऐसी ही अन्य उन क्षमताओं एवं आदतों का समावेश होता है, जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।”

रॉबर्ट बीरस्टीड लिखते हैं-

“संस्कृति वह सम्पूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।’

बोगार्ड्स कहते हैं

कि संस्कृति किसी समूह के कार्य करने व सोचने की समस्त विधियाँ है।”

समाजशास्त्र के अनुसार संस्कृति की निम्न विषेषताएँ हुआ करती हैं

1.संस्कृति मानव निर्मित होती है। यह केवल मनुष्य समाज में ही पाईक्षमताओं के अभाव के कारण संस्कृति का निर्माण नहीं हो पाता।

2.जिस प्रकार मनुष्य को अपने माता-पिता से वंशानुक्रम में शरीर रचना प्राप्त होती है, उस प्रकार संस्कृति से प्राप्त नहीं होती। मनुष्य जन्म से संस्कृति को लेकर नहीं आता बल्कि वह जिस समाज में पैदा होता है, उस समाज की संस्कृति को समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा धीरे-धीरे सीखता है।

3.संस्कृति सीखने की चीज है। नई पीढ़ी के लोग पुरानी पीढ़ी के लोगों से संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते हैं। संस्कृति सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित की जाती है।

4.प्रत्येक समाज की जरूरतें अलग-अलग होती हैं। उन जरूरतों की पूर्ति के लिए साधन भी भिन्न-भिन्न होते हैं। इस कारण हर समाज एक विशिष्ट संस्कृति को जन्म देता है।

5.संस्कृति किसी व्यक्ति विशेष की देन नहीं बल्कि सारे समाज की देन होती है। संस्कृति का विकास समाज के विकास के साथ ही होता है। समाज के अभाव में संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। कोई भी संस्कृति 5, 10 या 100 लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि समाज के अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।

6.एक समूह के लोग अपनी संस्कृति को आदर्श मानते हैं, और वे उसके अनुसार अपने व्यवहारों एवं विचारों को ढालते हैं।

7.संस्कृति मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। मानव अपनी शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संस्कृति का निर्माण किया करता है।

8.संस्कृति में समय, स्थान, समाज एवं परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको ढालने की क्षमता होती है। परिवर्तनशीलता संस्कृति का गुण है। विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार संस्कृति अपने आपको बदलती रहती है।

9.एक मनुष्य का पालन-पोषण किसी सांस्कृतिक पर्यावरण में ही होता है। जन्म के बाद बच्चा अपनी संस्कृति को सीखकर उसे आत्मसात् करता है। संस्कृति में प्रचलित रीति-रिवाजों, धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान, प्रथाओं एवं व्यवहारों की छाप व्यक्ति के व्यक्तित्व पर होती है।

10.संस्कृति अधि-वैयक्तिक होती है अर्थात् संस्कृति का निर्माण किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं होता। मनुष्य अपनी संस्कृति के केवल एक भाग का ही उपयोग कर पाता है, पूरे भाग का नहीं।

11.संस्कृति अधि-सावयवी होती है अर्थात् संस्कृति मानव को वंशानुक्रम से नहीं मिलती। यह समाज से सीखने की प्रक्रिया द्वारा प्राप्त की जाती है।

सभ्यता और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। समाज की भौतिक समृद्धि का परिचायक तत्त्व सभ्यता है।

सभ्यता सामाजिक व्यवहार की एक व्यवस्था है जबकि संस्कृति मानव के चित्त की उदात्त एवं परिष्कृत कृतियों की धर्म, दर्शन के रूप में अभिव्यक्ति है।

मानव के चित्त की वृत्तियों का आर्थिक एवं सामाजिक संगठन के रूप में जब विकास होता है तो वह सभ्यता कहलाती है। संस्कृति संस्कार से बनती है और सभ्यता नागरिकता का रूप है।

संस्कृति समाज की आत्मा है और सभ्यता शरीर है। संस्कृति का सम्बन्ध मानव के अन्र्तगत से है और सभ्यता का सम्बन्ध बाह्य जगत से है। आत्म-विस्तार का ही नाम संस्कृति है और भौतिक विकास का नाम सभ्यता है।

कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर कहते हैं-“संस्कृति हमें राह बताती है तो सभ्यता उस राह पर हमको चलाती है। संस्कृति न हो तो मनुष्य और पशु के विचारों में कोई भेद न रहे। सभ्यता न हो तो मनुष्य और पशु का रहन-सहन एक-सा हो जाए।

डॉ. देवराज सभ्यता और संस्कृति के सम्बन्ध में लिखते हैं

‘‘सभ्यता और संस्कृति, दोनों मनुष्य की सृजनात्मक क्रिया के कार्य का परिणाम हैं। जब यह क्रिया उपयोगी लक्ष्य की ओर गतिमान होती है, तब सभ्यता का जन्म होता है और जब वह मूल्य-चेतना को प्रबुद्ध करने की ओर अग्रसर होती है, तब संस्कृति का उदय होता है।”

आज भारतवासी अपने देश की प्राचीन एवं गौरवपूर्ण सभ्यता एवं संस्कृति को भूल गए हैं इसलिए देश के अन्दर ऊँच-नीच एवं जाति-पाँति का भेदभाव, साम्प्रदायिकता की ताकतें, भ्रष्टाचार एवं आतंकवाद जैसी विघटनकारी प्रवृत्तियाँ जन्म ले रही हैं। हमारे देश की महिमावान संस्कृति ने विश्व को सभ्यता, प्रेम, ज्ञान एवं सदाचार का पाठ पढ़ाया है। यदि हम अपने देश की महान् सांस्कृतिक विरासत के मूल्यों को धारण करें तथा सभ्य एवं सुसंस्कृत बनने  का प्रयत्न करें तो एक खुशहाल एवं संतुष्ट जीवन अवश्य बिता सकते हैं।

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