जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है
Janani aur Janambhumi Swarg se bhi Badhkar hai
एक माँ अथवा जननी अपने पुत्र को नौ महीने पेट में पालकर, अनेक प्रकार के कष्ट सहते हुए उसे जन्म देती है। माँ के इस अहसान को पुत्र भला कैसे चुका सकता है? माँ की ममता बहुत महान् है। वह खुद गीले स्थान में सोकर अपने पुत्र को सूखी जगह पर सुलाती है। सर्दियों में उसके तन पर नाममात्र को कपड़े होते हैं और खुद ठण्ड में ठिठुरकर रात बिताती है लेकिन अपने पुत्र को ठण्ड में सिकुड़ने नहीं देती। वह अपने पुत्र के लिए लत्ते-गूदड़ों का इन्तजाम अवश्य करती है।
पैगम्बर हजरत मोहम्मद ने माता को स्वर्ग से भी ऊँचा स्थान देते हुए अपने अनुयाइयों से कहा है-“तेरा स्वर्ग तेरी माँ के पैरों के तले है। मातृभूमि की सेवा में ही तेरा सच्चा बहिश्त है।” ।
त्रेतायुग में जब राम और रावण की सेनाओं में युद्ध हुआ तो अधर्म का पक्ष लेने वाले लंकाधिपति रावण की हार हुई और धर्म के प्रतीक राम की जीत हुई। रावण का अन्त हुआ। युद्ध के पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी ने लंका का वैभव देखकर अपनी इच्छा प्रकट की कि क्यों न हम इस लंका नगरी को ही अपनी राजधानी बना लें।
इस पर राम ने कहा-
“अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते।।
…जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”
(अर्थात हे लक्ष्मण! यह लंका नगरी भले ही सोने की बनी हुई, सुन्दर एवं आकर्षक है लेकिन यह मुझे अच्छी नहीं लगती क्योंकि माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी ज्यादा श्रेष्ठ हुआ करती है।)
अपनी माता की छत्रछाया तले बालक जैसे चाहे, वैसे खाता-पीता, खेल तथा हँसता है और अपनी मातृभूमि की गोद में पलकर वायु, जल, भोजन आदि प्राकृतिक तत्त्वों एवं सुविचारों का आनन्द लेता है। जननी और जन्मभूमि की गोद में बच्चे को किसी प्रकार की चिन्ता फिक्र नहीं होती। यदि वह अनेक गलतियाँ करता है, तो माता उसको क्षमा कर देती है। संसार भर में माता दया, ममता. त्याग, प्रेम, करुणा और क्षमा की मूर्ति के रूप में प्रसिद्ध है। माँ के और मातृभूमि के आँचल में सोकर बालक को सच्चे सुख, आत्मीयता, सच्चे आनन्द एवं निश्चिन्तता की अनुभूति होती है।
स्वर्ग में फिर भी पावन देवी-देवताओं का संकोच बना रहता है और भय रहता है कि कहीं किसी भूल से देवता लोग नाराज न हो जायें। यद्यपि भौतिक सुख-समृद्धि स्वर्ग की दुनिया में कम नहीं होती। कहते हैं कि स्वर्ग में सोने चाँदी के महल, उत्तम फल वाले वृक्षों के बगीचे, छप्पन प्रकार के व्यंजन, घी, दूध, मेवे मिष्टान्न तथा हर तरह का भौतिक सुख खूब होता है। जो पुण्यात्माएँ अथवा श्रेष्ठ मानव स्वर्ग में जाते हैं उनको किसी भी प्रकार का दुःख या कष्ट उठाना नहीं पड़ता। मुस्लिम कर्म शास्त्र ‘कुरान’ में बहिश्त या जन्नत के नाम से तथा ईसाई धर्म के शास्त्र ‘बाइबिल’ में पैराडाइज या हेविन के नाम से स्वर्ग की अनेक विशेषताओं का वर्णन किया गया है। कहते हैं कि स्वर्ग में घी, दूध और शहद की नदियाँ बहती हैं। इन्सान को दैहिक, दैविक तथा भौतिक आदि किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होता।
हिन्दू धर्म के धार्मिक ग्रन्थ पद्म पुराण के भूखण्ड अध्याय में स्वर्ग की विशेषताओं का इस प्रकार वर्णन किया गया है-
‘स्वर्ग में बहुत ही रमणीय नन्दनवन है जहाँ सारी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष –
हैं। वहाँ अद्भुत प्रकार के रस और आनन्द हैं। सुन्दर-सुन्दर विलास भवन हैं। स्वर्ग में मनुष्य की सब इच्छाओं की पूर्ति होती है। वहाँ मनुष्य को चिरस्थायी एवं अमर सुख मिलता है। रोग, शोक, जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु (अकाल मृत्यु) वहाँ नहीं आते। न वहाँ किसी को गर्मी लगती है और न सदी लगती है। न वहाँ किसी को भूख सताती है और न प्यास व्याकुल करती है।” पुण्यकर्म करने वाले लोग ऐसी जगह पर जाकर स्थायी सुख शान्ति और संतोष प्राप्त करते हैं।
यह ठीक है कि स्वर्ग एक उत्तम जगह है लेकिन स्वर्ग में स्थान कितने लोगों को मिल पाता है? आज संसार में छः सौ करोड़ से भी ज्यादा लोग निवास करते हैं लेकिन ये सभी के सभी स्वर्ग के अधिकारी नहीं बन सकते। स्वर्ग के प्रवेश द्वार का अनुमति पत्र केवल गिने-चुने लोगों को ही प्राप्त होता है। शेष सभी व्यक्ति स्वर्ग में नहीं आ सकते। इस प्रकार लाखों करोड़ों इंसानो के लिए स्वर्ग एक सपना बनकर रह जाएगा।
कहते हैं कि आगामी स्वर्ग की दुनिया में केवल नौ लाख व्यक्ति ही आ पाएँगे। वे भी ज्ञान-योग से सम्पन्न, पूर्णतः देवत्व पाए हुए एवं मर्यादा सम्पन्न होंगे। शेष व्यक्तियों के लिए स्वर्ग में कोई स्थान नहीं है।
हमारे देश के प्राचीन ऋषि मुनियों तथा महापुरुषों को शायद यह बात मालूम थी कि स्वर्ग की दुनिया सभी को नसीब नहीं होगी और स्वर्ग से वंचित लोग स्वर्ग में जगह न मिलने की वजह से दुःखी होंगे इसलिए उन्होंने जगत् की भलाई के लिए एक ऐसी महान् बात कह डाली जिससे लाखों करोड़ों सामान्य इन्सानों को सन्तुष्टि मिली-
“जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हुआ करती है…”
स्वर्ग तो सभी को नसीब नहीं होता, परन्तु माता अथवा जननी प्रत्येक व्यक्ति की होती है तथा जिस धरती पर मानव पैदा होता है, वह मातृभूमि भी सबके लिए समान होती है।
परमात्मा ने स्वर्ग का अधिकार तो केवल पुण्यात्माओं के लिए तथा ज्ञानी-योगी एवं पवित्र मनुष्यात्माओं के लिए दिया है लेकिन उन्होंने जननी और जन्मभूमि के आँचल का लोभ संसार की प्रत्येक मनुष्यात्मा के लिए दिया है। इस दुनिया में सच्चा सुख वह नहीं है जो केवल कुछ ही लोगों के लिए हो बल्कि सच्चा सुख वह है, जो सब लोगों के लिए हो–सारे जगत् के लिए हो।
राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने मातृभूमि की महानता के बारे में कहा है-“हे मातृभूमि! तुम क्षमामयी हो, तुम अपने पुत्रों का अपराध क्षमा कर देती हो। तुम दुखियों और पीड़ितों के दुःख-कष्ट दूर करने में लगी रहती हो-इसलिए तुम दयामयी हो। तुम लोगों की विपत्ति और संकटों से रक्षा करती हो इसलिए क्षेममयी हो। अमृत के समान जल-जीवन प्रदान करने वाली तुम सुधामयी हो। सबसे प्रेम करने वाली तुम प्रेममयी हो। तुम प्राणियों पर अपार धन-सम्पत्ति तथा वैभव लुटाती हो। तुम प्राणियों के अनुकूल वातावरण बनाने वाली, प्राणियों के मन में क्रोध आदि मनोविकारों को शान्त करने वाली, प्राणियों को शरण देने वाली वात्सल्यमयी हो। तुम हमारी माता हो, हमारा जीवन हो।
माता गर्भ में अपने रक्त से बच्चे का पोषण करती है तथा बच्चे के जन्म के पश्चात् अपना दूध पिलाकर उसकी परवरिश करती है। वह बालक को शिक्षा. ज्ञान का प्रथम पाठ पढ़ाती है इसलिए वह दुनिया के सारे आचार्यों तथा पिता से भी बड़ी मानी गई है।
कॉलरिन के शब्दों में-“माँ जीवित वस्तुओं में सबसे पवित्र है।” उपन्यास सम्राटू मुंशी प्रेमचन्द कहते हैं-“जननी का मातृस्वरूप संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे बड़ी विजय है।”