कर्म ही पूजा है
Karm hi Pooja Hai
मानव-जीवन में कर्म का बड़ा महत्त्व है। कर्म से ही मनुष्य श्रेष्ठ और कर्म से ही निकृष्ट बनता है। जन्म और जाति से कोई भी व्यक्ति महान् नहीं होता। महानता उसके सद्कर्मो से आती है।
लोग ईश्वर अथवा देवी देवताओं की पूजा-आराधना करने के लिए मन्दिर में फल-फूल चढ़ाते हैं, जड़ मूर्तियों की आरती उतारते हैं लेकिन अच्छे कर्मों के बिना इस तरह की पूजा-आराधना निष्फल है।
विश्व कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने कर्म पर जोर देते हुए कहा है-
‘‘ध्यान, पूजा को किनारे रख दे,
उनके साथ काम करते हुए पसीना बहने दे।”
इसी प्रकार सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी अपने काव्य में ईश-स्मरण से । ज्यादा मनुष्य के कर्म को महत्त्व देते हैं।
जीवन की किसी भी साधारण या विशिष्ट क्रिया का नाम कर्म है। यह क्रिया शरीर की चेष्टा अथवा हलचल से की जाती है।
मनुष्य के कर्म तीन प्रकार के होते हैं–
(1) प्रारब्ध कर्म
(2) संचित कर्म और
(3) क्रियमाण कर्म ।
जो कर्म मनुष्य के वर्तमान जीवन को चलाते हैं, उनको प्रारब्ध कर्म कहा जाता है। जो कर्म पहले से ही संग्रहीत होते हैं या पहले के इकट्ठे होते हैं, उनको संचित कर्म कहा जाता है जबकि वर्तमान में किए जाने वाले कर्मों को क्रियमाण कर्म कहा जाता है। क्रियमाण कर्मों का फल आगे आने वाले समय में या भविष्य में मिलता है। संचित कर्म भूतकाल में किए गए होते हैं जबकि प्रारब्ध कर्म भूतकाल के कमों का परिणाम या संचित कम का फल होते हैं। यह फल मनुष्य को वर्तमान जीवन में मिलता है।
कर्म के बिना मनुष्य को कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। इस संसार के सारे सुख-साधन केवल कर्मशील मनुष्यों के ही लिए हैं। अकर्मण्य या आलसी व्यक्ति हृष्ट-पुष्ट शरीर के होते हुए भी जीवन का सच्चा सुख पाने से वंचित हो जाते हैं क्योंकि वे लन सुखों की प्राप्ति के लिए किसी प्रकार की चेष्टा या प्रयास नहीं करते।
सकल पदारथ हैं जग माँही।।
कर्महीन नर पावत नाही॥
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध कहते हैं-
‘‘कर्महीनता मरण कर्म कौशल है जीवन।
सौरभ रहित सुमन समान है कर्महीन जन॥
जिस तरह सौरभ या सुगन्ध रहित पुष्प का कोई मूल्य नहीं होता, उसी प्रकार कर्महीन मनुष्य किसी गिनती में नहीं आता। कर्म के अभाव में वह जीता हुआ भी मुर्दे के समान होता है।
कर्म से मनुष्य के सारे मनोरथ पूरे होते हैं। कर्म मनुष्य को खुशी, आनन्द और जीवन का सन्तोष प्रदान करता है अतः कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को कर्म करने का उपदेश देते हुए कहते हैं-
कर्मण्ये वाधिका रस्ते मा फलेषु कदायन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोऽस्तव कर्माणि॥”
कर्म को पूजा या आराधना मानकर किया जाए तो उसका फल अवश्य मिलता है। कर्म-सिद्धान्त के अनुसार अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का फल बुरे रूप में मिलता है। सुख, शान्ति, आनन्द, सन्तोष, सम्पत्ति आदि की प्राप्ति होना ही सुकर्मों का फल है। दूसरी तरफ दुष्कर्मों या कुकर्मों का पल दुःख, दरिद्रता, अशान्ति एवं कलह-क्लेश का प्राप्त होना है।
अच्छा या बुरा कर्म मनुष्य के भविष्य का निर्माण करता है। हितोपदेश में कहा गया है-
यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति।
एवमात्मकृतं कर्म मानवं प्रतिपद्यते॥”
अथात् जैसे कुम्हार मिट्टी के पिण्डों से जो चाहता है, वह बनाता है, उसी प्रकार अपना किया हुआ कर्म ही मनुष्यों को बनाता है। कर्मों के प्रभाव से ही आज देवी देवता लोग सारे जगत् में पूजित हैं तथा असुर लोग निन्दित हैं। आसुरी अथवा निकृष्ट कर्म मनुष्य को निन्दा प्रदान करते हैं जबकि देवत्वपूर्ण कर्म उसे महिमावान बनाते हैं।
कर्म मनुष्य का भूतकाल, वर्तमान और भविष्य निर्धारित करता है। किए। हुए कर्म का फल मनुष्य को अवश्य मिलता है-यह गीता का सिद्धान्त है।
‘कृतं फलनि सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित्‘ (वेद व्यास)
अर्थात् सर्वत्रकर्म ही फल देता है। बिन किए कर्म का फल नहीं भोगा जा सकता।
आज का मनुष्य अपने जीवन की दिशा से भटक गया है। जो कर्म उसे नहीं करने चाहिए, वह उन कर्मों को करने में मन लगाने लगा है। जिन कर्मों से मनुष्य की आत्मा को, समाज को, राष्ट्र को और मानव जाति को किसी प्रकार की क्षति या हानि पहुँचती है-वे कर्म किसी मायने में शुभ नहीं हो सकते। ऐसे कर्मों को न करना ही अच्छा है।
कर्म वह बीज है जो मनुष्य के जीवन रूपी वृक्ष में सुख-शान्ति, आनन्द एवं सन्तोष रूपी मधुर फलों को पैदा करता है।
शास्त्रों में कर्म को ‘तप’ कहा गया है। कर्म ही सिद्धि एवं अमरत्व का द्वार है। कर्म सभी प्रकार के मनुष्यों से और ईश्वर से भी बड़ा है। ईश्वर भी कर्मों से बँधा हुआ है। वह भी सृष्टि पर अवतरित होकर पतितों को पावन बनाने, साधु पुरुषों का उद्धार करने तथा नर्कसमान दुनिया को स्वर्ग या बैकुण्ठ के समान सुखदाई जगत् बनाने का महानतम कर्म करता है। यदि भगवान का कोई भी कर्म न हो तो उसके होने का औचित्य ही क्या रह जाए।
कहते हैं कि मनुष्य के कर्मों के ऊपर विधाता का भी वश नहीं चलता। अपने कर्मों का फल मनुष्य को एक न एक दिन अवश्य भोगना पड़ता है। भर्तृहरि कहते हैं-
“नमस्तेभ्यः कर्मेभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ।”
(अर्थात उन कर्मों को हम नमस्कार करते हैं जिन पर विधाता का कोई वश नहीं चलता।)
जो कर्म अभिमान से रहित होकर किए जाते हैं वे ही सफल होते हैं। अभिमानपूर्वक किए गए कर्म कभी सफल नहीं होते-ऐसे वेदव्यास जी कहते हैं।
कुछ लोग अपने कार्यों में पूरा मन नहीं लगाते और कर्म को पूजा या श्रद्धा की भावना से न करके केवल टाल देने की भावना से कर देते हैं। इस तरह के कर्मों से पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं होती।
कर्म ईश्वर की सच्ची उपासना या पूजा है क्योंकि कर्म से रहित किसी प्रकार की पूजा या उपासना करने पर ईश्वर प्रसन्न नहीं होता। कर्म एक ऐसी सच्ची और प्रभावशाली पूजा है, जो मनुष्य को जीवन में तत्काल अथवा प्रत्यक्ष फल प्राप्त कराती है। कर्म मनुष्य की सुख-समृद्धि का आधार है और उसके जीवन का मंगलमय वरदान भी है।