विद्यार्थी और सामाजिक चेतना
Vidyarthi aur Samajik Chetna
विद्यार्थी समाज का एक अभिन्न अंग है। उसे समाज से अलग नहीं किया जा सकता। समाज की क्रिया और प्रतिक्रियाएँ तथा घटनाएँ विद्यार्थी के जीवन को प्रभावित करती हैं। प्राचीन गुरुकुल पद्धति में विद्यार्थी ऋषि-मुनियों के आश्रम में रहते थे। वे शेष समाज से अलग उनसे कटे हुए रहते थे। गुरुकुल के बच्चों को सामाजिक क्रियाकलापों में हिस्सा लेने तथा समाज, परिवार के लोगों से मिलने-जुलने की अनुमति नहीं दी जाती थी। उनके सारे क्रियाकलाप आश्रम में ही रहकर पूर्ण होते थे। गुरुकुल के विद्यार्थियों को दीन-दुनिया की कोई खबर ही नहीं होती थी।
लेकिन वर्तमान काल का विद्यार्थी गुरुकुल-परम्परा की तरह एकाकी नहीं है। वह समाज के लोगों के बीच रहकर अपने स्कूल तथा कॉलिज की पढ़ाई करता है। समाज की संवेदनाओं और क्रिया-प्रतिक्रियाओं से वह सीधे रूप से जुड़ा हुआ होता है।
आज के छात्र-छात्राओं को समाज की गतिविधियों की जानकारी टेलीविजन तथा समाचार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हो जाती है। उनके अन्दर अपने समाज के दुःख-सुख को समझने की सामर्थ्य है। समाज में होने वाली अच्छी और बुरी, सभी प्रकार की हलचलों से आज के विद्यार्थी प्रभावित होते हैं।
विद्यार्थियों को अब यह ज्ञात हो चला है कि हमारे समाज को कौन-कौन लोग नुकसान पहुँचाने वाले अथवा समाज के दुश्मन हैं और कौन-कौन समाज के मित्र या समाज का भला करने वाले हैं।
विद्यार्थी की सामाजिक चेतना का विकास सबसे पहले उसके घर से ही शुरू होता है। अपने माता-पिता तथा पारिवारिकजनों से विद्यार्थी को अपने समाज के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिलता है। इसके बाद वह जब अपने आस-पड़ोस तथा मित्र-मण्डली में खेलने जाता है तो उसे समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों तथा समाज की विभिन्न प्रकार की गतिविधियों के बारे में बहुत-सी बातें सीखने को मिलती हैं।
विद्यार्थी अपने आसपास के वातावरण में जब कोई वर्जित दृश्य देखता है। या किसी अप्रिय घटना को घटित होते देखता है तो उसके दिमाग में चिन्तन चलने लगता है कि ऐसा क्यों होता है? उदाहरण के तौर पर जब विद्यार्थी अपने पिता या शिक्षक को कभी-कभार सिगरेट पीते हुए देखता है तो उसके मन में भी वैसा करने की भावना पैदा होने लगती है। विद्यार्थी को ज्ञात नहीं है कि सिगरेट से कौन-कौन-से नुकसान होते हैं। शायद यह उसे बताया ही नहीं गया है। यदि वह भी अपने पिता की देखादेखी सिगरेट पीने का प्रयत्न करता है तो घर पर उसे खूब डाँटा या मारा-पीटा जाता है। इससे विद्यार्थी का मन अपने परिवार से विद्रोह करने लगता है।
स्कूल में जब विद्यार्थी अपने अध्यापक का व्यवहार स्वार्थयुक्त तथा पक्षपात युक्त देखता है, तो भी उसके मन में विद्रोही भाव पैदा हो जाता है।
अच्छे मित्रों के स्वभाव संस्कारों का विद्यार्थी पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। जबकि बुरी आदतों वाले मित्र विद्यार्थी के जीवन-चरित्र के ऊपर गलत असर डालते हैं। अच्छे मित्रों के साथ रहकर विद्यार्थी जीवन में उन्नति प्राप्त करता है जबकि बुरे या खराब मित्रों के साथ से उसका हमेशा पतन ही होता है।
विद्यार्थी अपने समाज में रहकर धर्म के स्वरूप को भी समझने लगा है। वह जानता है कि समाज के सभी वर्गों के लोग एक ही परमपिता परमात्मा अथवा परमेश्वर की सन्तान हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी और यहूदी आदि विभिन्न समुदायों के भेद पृथ्वी पर इन्सान ने किए हैं–भगवान ने नहीं। भगवान ने तो समाज के सभी लोगों को पृथ्वी पर एकमात्र इन्सान या मानव के रूप में ही भेजा था। समाज के सभी धर्मों के लोग ईश्वर, अल्लाह, खुदा, गॉड, नूर, वाहेगुरु आदि कहकर जिस परमेश्वर को याद करते हैं-वह परमशक्ति-सबका मालिक एक ही है। विद्यार्थी जानता है कि समाज में धर्म और जाति के नाम पर जितने भी लड़ाई झगड़े होते हैं अथवा साम्प्रदायिक हिंसा होती है-उसका मूल कारण अज्ञानता ही है।
विद्यार्थी जानता है कि समाज के विवेकहीन धार्मिक विश्वासों से ही अन्धविश्वास का जन्म होता है। समाज के लोग रास्ता चलते बिल्ली के निकल जाने किसी के छींक देने या किसी काने व्यक्ति के दिख जाने को अपशकुन न लेते हैं। इस वैज्ञानिक युग में भी विद्यार्थी लोगों को ओझा, तान्त्रिकों और मन्त्र फेंकने वालों के चक्कर में फंसे देखता है तो उसका मन दुःखी हो उठता है। वह पाठ्य-पुस्तकों के नवीन ज्ञान के आधार से समाज के लोगों को सुधारना चाहता है, समझाना चाहता है लेकिन उसकी बात सुनी नहीं जाती। छोटे विद्यार्थियों को तो अनुभवहीन और अपरिपक्व समझकर उपेक्षित कर दिया जाता है।
विद्यार्थियों की सामाजिक चेतना बड़ी उम्र के व्यक्तियों से किसी भी कीमत में कम नहीं है। समाज के स्वरूप का ज्ञान ही सामाजिक चेतना कहलाता है। समाज के सम्बद्ध होने या दूर हटने की क्रिया का नाम ही सामाजिक चेतना है। समाज के प्रति कर्त्तव्य और दायित्व-बोध का नाम ही सामाजिक चेतना है।
समाज के बाध्य जीवन की अनुभूति का बोध जब विद्यार्थी जीवन में होता है, तो वह उन अनुभूतियों तथा बोध के आधार पर जीवन की अनोखी और नई बातों की सृष्टि अपने मानस-पटल पर करता है। उसके मन में जैसे भी भाव उठते हैं, वह उन भावों के प्रति अनुरक्त हो जाता है। ऐसा होने से उसके अन्दर कई प्रकार के मनोवेग जाग्रत और उत्तेजित हो जाते हैं। तब विद्यार्थी अपना एक स्वस्थ दृष्टिकोण निर्धारित करता है तथा मनोवेगों से प्रेरित होकर अपने जीवन में बदलाव लाने का प्रयत्न करता है। सामाजिक चेतना के कारण ही उसके विचारों में तथा जीवनशैली में परिवर्तन आता है।
अपनी सामाजिक चेतना के फलस्वरूप विद्यार्थी सोचता है कि वह एक सामाजिक प्राणी है तथा समाज के साथ मिल-जुलकर रहने में ही उसकी भलाई है, समाज में भ्रष्टाचार का जो रोग छाया हुआ है तथा जगह-जगह शोषण-व्यभिचार पनप रहा है वह समाज के ऊपर कलंक की तरह है। लोगों के अन्दर छाई कामचोरी, आलस्य तथा अकर्मण्यता की प्रकृति को विद्यार्थी समाज के पतन की जड़ समझता