घर की मुर्गी दाल बराबर
Ghar ki Murgi Daal Barabar
एक दिन दादाजी, अमर, लता और दादीजी घर के बाहर आँगन में बैठे थे। उसी समय पड़ोस में रहने वाले श्यामलाल जी आ गए। उन्होंने दादाजी को प्रणाम किया। दादाजी ने पूछा-“कहो श्यामलाल जी, बाल-बच्चे कैसे हैं? उनकी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है?” “क्या बताऊँ जी ! आप तो जानते ही हैं कि सोनू और मोनू की माँ खुद एक टीचर है। लेकिन बच्चे हैं कि अपनी माँ से पढ़ने को कतई तैयार नहीं हैं। कहते हैं कि किसी और टीचर से ट्यूशन पढ़ेंगे।” श्यामलाल जी ने उदास होकर कहा। “हाँ, श्यामलाल जी! आप बिलकुल ठीक कहते हैं। घर की मुर्गी दाल बराबर होती है। घर में कोई कितना ही विद्वान् आदमी हो, बच्चे उसकी बात कभी नहीं सुनेंगे। हाँ, अपने दोस्तों की सलाह पर फौरन अमल करेंगे, चाहे उससे नुकसान ही क्यों न हो जाए।” दादाजी ने कहा। फिर कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करके श्यामलाल जी चले गए। “दादाजी, घर की मुर्गी दाल बराबर कैसे होती है?” लता ने पूछा।
बेटा, यह तो एक कहावत है। इसका मतलब है-अपने घर के इनसान या वस्तु की उपेक्षा करना। यानी उनको महत्त्व और आदर न देना। जबकि बाहर वालों को जरूरत से ज्यादा सम्मान देना।” दादाजी ने समझाया।
“आप हमें इसकी कहानी भी सुनाओ, दादाजी!” अमर ने फरमाइश की। दादाजी ने कहना शुरू किया- बनवारी मुर्गियाँ पालने का धंधा करता था। उसकी पत्नी जानकी इस काम में उसकी मदद करती थी, जैसे मुर्गियों को चारा खिलाना, साफ-सफाई करना आदि। जब मुर्गियाँ अंडे देती थीं, तब वह उन्हें धो-पोंछकर पैक कर देती थी। लोग मुर्गियाँ और अंडे खरीदकर ले जाते थे। बनवारी भी बहुत मेहनत करता था। वह मार्किट में जाकर मुर्गियाँ और अंडे बेचता था। उसका कारोबार खूब फल-फूल रहा था।
“एक दिन बनवारी के घर उसके कुछ रिश्तेदार आए। बनवारी ने उनकी अच्छी तरह आवभगत की और उनसे एक दिन उसके घर में रुकने का आग्रह किया। ज्यादा जिद करने पर उसके रिश्तेदार मान गए। सफर की थकान के कारण उन लोगों ने दिन-भर आराम किया। रात के समय बनवारी ने अपने रिश्तेदार से पूछा कि रात के खाने में क्या खाएँगे? उसके रिश्तेदार बोले-‘देखो भाई, हम तो दाल-चावल खाना पसंद करते हैं। हमारे बच्चे भी दाल-चावल बड़े शौक से खाते हैं। यह सुनकर जानकी का चेहरा उतर गया। उसने बनवारी के कान में धीरे से कहा-‘अजी, घर में दाल का एक दाना भी नहीं है। उन दोनों की कानाफूसी देखकर उनके रिश्तेदार बोले-‘क्यों जी, कोई परेशानी है क्या?’ “ बनवारी ने एक ठहाका लगाया और बोला-‘अब आपसे क्या छिपाना? जानकी कह रही है कि इस वक्त घर में दाल नहीं है। अरे, दाल नहीं है तो क्या हुआ? दाल की जगह मुर्गी पका लेते हैं। यह सुनकर उसके रिश्तेदार जोर से हँस पड़े और बोले-‘वाह जी, आपने भी खूब कही। यानी घर की मुर्गी दाल बराबर!’ इस बात से बनवारी और उसकी पत्नी मन-ही-मन काफी शर्मिंदा हुए।” दादाजी ने अपनी कहानी समाप्त करते हुए कहा।
अमर बोला-“दादाजी, आपने बिलकुल ठीक कहा। हमें अपने घर के लोगों के ज्ञान और गुणों का भी आदर करना चाहिए। वरना वे भी हमारा आदर नहीं करेंगे।”