मज़हब नहीं सिखाता, आपसे मैं बैर रखना
Mazhab Nahi Sikhata, Aapas me Bair Rakhna
“मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।
हिन्दी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।।”
ये पंक्तियाँ हैं कवि आलामा इकबाल की, जो उर्दू के प्रसिद्ध शायर थे। उन्होंने ये पंक्तियाँ अपनी एक देश-प्रेम की कविता में रचीं। उनके इन शब्दों से देश के जन-जन में देशभक्ति का संचार हुआ और देशवासी साम्प्रदायिकता की भावना से ऊपर उठकर स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े। इन शब्दों में ऐसा जादू भरा था कि प्रत्येक मज़हब के लोग स्वयं को मात्र भारतीय मानते हुए भारतमाता की पराधीनता की बेड़ियाँ काटने में संलग्न हो गए। कवि की इन पंक्तियों ने लोगों को मजहब के वास्तविक अर्थ का ज्ञान कराया।
मजहब एक पवित्र अवधारणा है। यह अत्यन्त सूक्ष्म, भावनात्मक सूझ, विश्वास और अदा है। मुलतः अध्यात्म के क्षेत्र में ईश्वर, पगम्यर आदि के प्रति मन की श्रद्धा या विश्वास पर आधारित धारणात्मक प्रक्रिया ही मजहब है। यह बाह्य-आडम्बरों, वर-भाव, अन्धविश्वास आदि से ऊपर है। इसी बात को ही इकबाल जी ने कहा है। उनके द्वारा कथित सूक्ति का भी यही अभिप्राय है कि कोई भी । धर्म परस्पर वैर रखने को प्रोत्साहित नहीं करता, अपित परस्पर मेल-मिलाप और भाई-चारे का संदेश देता है। मज़हब सिखाता है लड़ाई-झगड़े से दूर रहकर आत्म-संस्कार के द्वारा प्राणियों का हित-साधना करना। मजहब स्पष्ट करता है कि भले ही ईश्वर के नाम पृथक् हैं और रूप भिन्न हैं, फिर भी वह एक ही है। मजहब के नाम पर लड़ना मूर्खता है। मज़हब की आड़ में लड़ने वाले अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए इसकी विभिन्न ढंगों से व्याख्या करते हैं।
अब यदि इतिहास पर नज़र दौड़ाते हुए विचार करें तो स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठेगा कि क्या मज़हब की उपरोक्त व्याख्या उचित है ? हम सभी जानते हैं। कि इकबाल के उपरोक्त कथन के बावजूद भारत में मज़हब के नाम पर कत्लेआम हुआ, भारतमाता के दो टुकड़े हुए। मुसलमान पाकिस्तान का व हिन्दू हिन्दुस्तान (भारत) का गुणगान करने लगे। यहाँ तक कि स्वयं कवि भी ऐसे लोगों की श्रेणी में शामिल हो गया और अपने ही कथन को विस्मृत करके पाकिस्तान का गुणगान करने लगा। जब स्वयं वक्ता की ही अपने कथन पर श्रद्धा न हो तो ये पंक्तियाँ कसे श्रद्धेय हो सकती हैं ? यही कारण है कि देश की स्वतन्त्रता के इतने वर्षों के पश्चात भी लोग इनको अपने मन में धारण नहीं कर पाए हैं। सम्भवतः इसका। कारण यह भी हो सकता है मुसलमानों के पवित्र ग्रंथ कुरान में स्पष्ट लिखा है कि जो व्यक्ति कुरान में वर्णित अल्लाह की इबादत नहीं करता। वह काफिर है और काफ़िर (पापी) को जीने का कोई अधिकार नहीं। इस प्रकार इस्लाम धर्म केवल अल्लाह को मानने वालों को काफिर की संज्ञा देता है, तो ऐसी स्थिति में ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ की सार्थकता पर प्रश्नचिह लग जाता है।
इतिहास से दृष्टि हटाकर यदि हम वर्तमान में मनन करें तो क्या आज भी मज़हब के नाम पर दंगे फसाद नहीं होते ? सलमान रूश्दी द्वारा इंग्लैंड में बैठकर इस्लाम की पवित्र आयतों के खिलाफ एक कल्पित उपन्यास लिखने के कारण ही उसके लिए मौत का फरमान जारी कर दिया गया, लेकिन परित्यक्ता मुस्लिम नारी के हित को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय सुनाया गया तो धमविलम्बियों ने इसे ‘मुस्लिम कानून में हस्तक्षेप माना। इससे भारतीय राजनीति में हलचल मच गई। अयोध्या में राम-जन्मभूमि पर बाबरी मस्जिद होने से निरन्तर तनावपूर्ण स्थिति बनी रही। यहाँ तक कि मस्जिद को तोड़कर उस स्थान पर राममन्दिर । बनाने का प्रयास किया गया। आज भी बकरीद के अवसर पर मुसलमान गाय या वैल ही हत्या करते हैं, जबकि हिन्दू गाय को माँ-तुल्य मानकर पूजा करते हैं। क्या अब भी कहा जा सकता है कि ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ?’
इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें कवि की पवितयों का गहराई से अध्ययन करना होगा। यह बात सही है कि देश का विभाजन मजहब के नाम पर हुआ था, किन्तु वह तथ्य भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि देश-विभाजन की माँग करने वाले चंद लोग ही थे, जो पथभ्रष्ट होने के साथ-साथ अंग्रेजी शासकों के हाथों की कठपुतलियां थे। मज़हब के वास्तविक अर्थ को समझाने वाले भारतीय इस विभाजन के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे। इतिहास साक्षी है कि धार्मिक अन्धविश्वास के कारण जव ईसा को सूली पर लटकाया गया, तो सलीब पर शरीर को लटकाने वालों, कीलें ठोकने वालों के लिए भी शुभकामनाएं-करते हुए उन्होंने कहा था-“प्रभो ! इनको सुबुद्धि, सुख और शांति दे। ये लोग नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं या करने जा रहे हैं। इसी प्रकार गुरु तेगबहादुर, हकीकतराय, महात्मा गाँधी आदि कितने ही महापुरुषों ने अपने जीवन की कुर्बानी दे दी; किन्तु अंतिम सांस तक भूलकर भी दूसरे मज़हब के प्रति अपशब्द नहीं कहे। इसी कारण ही तो आज समस्त विश्व उन महापुरुषों को ससम्मान स्मरण करता है। यदि हम किसी भी धर्म अथवा मज़हब की धार्मिक पुस्तक को उठाकर देखें तो उसमें अपने तरीके से पूजा-अर्चना करने के विषय में तो कहा गया है किन्त किसी में भी ईष्य-द्वेष करने की बात नहीं मिलती। यदि हम दूसरों के मज़हब का सम्मान करेंगे, तो दूसरे भी हमें सम्मान के बदले सम्मान ही देंगे । सव धर्म सहिष्णुता, नम्रता, प्रेम, सहानुभूति, सत्य, सदाचार आदि की शिक्षा देते हैं। सभी धर्मों का सार एक ही है। धर्म इन्सानों को तोड़ने का नहीं, अपितु जोड़ने का साधन है। धर्म आदमी को आदमीयत का विकास करने की प्रेरणा देता है। इसीलिए मज़हब के महत्व पर प्रकाश डालते हुए इक्बाला ने कहा है–
“हमने यह माना कि मज़हब जान है, इन्सान की।
कुछ इसी के दम से कायम शान है, इन्सान की।।
‘निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ऊपर से देखने पर मज़हब जितना कलहकारक लगता है, अन्दर से उतना ही शांतिदायक है। अतः हमें मजहब के। सच्चे अर्थ को समझते हुए सभी धर्मों को सम्मान करना चाहिए। अपने विश्वास व मान्यताओं पर कायम रहते हा भी दूसरे धर्मों से घृणा नहीं करनी चाहिए। सर्वधर्म समन्वय, सर्वधर्म समभाव ही मज़हब का सार-तत्व है। शेष सब मात्र आडम्बर है।