झूठी शान महँगी पड़ती है
Jhuthi Shaan Mehangi Padti Hai
एक जंगल में पहाड़ की चोटी पर एक किला बना था। किले के एक कोने के साथ बाहर की ओर एक ऊँचा विशाल देवदार का पेड़ था। किले में उस राज्य की सेना की एक टुकड़ी तैनात थी। देवदार के पेड़ पर एक उल्लू रहता था। वह भोजन की तलाश में नीचे घाटी में फैले ढलवाँ चरागाहों में आता। चरागाहों की लंबी घास व झाड़ियों में कई छोटे-मोटे जीव व कीट-पतंगे मिलते, जिन्हें उल्लू अपना भोजन बनाता। निकट ही एक बड़ी झील थी, जिसमें हंसों का निवास था। उल्लू पेड़ पर बैठा झील को निहारा करता। उसे हंसों का तैरना व उड़ना मंत्रमुग्ध करता। वह सोचा करता कि कितना शानदार पक्षी है हंस एकदम दूध सा सफेद, गुलगुला शरीर, सुराहीदार गरदन, सुंदर मुख व तेजस्वी आँखें। उसकी बड़ी इच्छा होती किसी हंस से उसकी दोस्ती हो जाए।
एक दिन उल्लू पानी पीने के बहाने झील के किनारे उगी एक झाड़ी पर उतरा। निकट ही एक बहुत शालीन व सौम्य हंस पानी में तैर रहा था। हंस तैरता हुआ झाड़ी के निकट आया।
उल्लू ने बात करने का बहाना ढूँढ़ा, “हंसजी, आपकी आज्ञा हो तो पानी पी लूँ। बड़ी प्यास लगी है।”
हंस ने चौंककर उसे देखा और बोला, “मित्र! पानी प्रकृति द्वारा सबको दिया गया वरदान है। उस पर किसी एक का अधिकार नहीं।”
उल्लू ने पानी पीया। फिर सिर हिलाया जैसे उसे निराशा हुई हो। हंस ने पूछा, “मित्र! असंतुष्ट नजर आते हो। क्या प्यास नहीं बुझी?”
उल्लू ने कहा, “हे हंस! पानी की प्यास तो बुझ गई, पर आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नीति व ज्ञान के सागर हैं। मुझमें उसकी प्यास जग गई है। वह कैसे बुझेगी?”
हंस मुसकराया, “मित्र, आप कभी भी यहाँ आ सकते हैं। हम बातें करेंगे। इस प्रकार मैं जो जानता हूँ, वह आपका हो जाएगा और मैं भी आपसे कुछ सीख लूँगा।”
इसके पश्चात् हंस व उल्लू रोज मिलने लगे। एक दिन हंस ने उल्लू को बता दिया कि वह वास्तव में हंसों का राजा हंसराज है। अपना असली परिचय देने के बाद हंस अपने मित्र को निमंत्रण देकर अपने घर ले गया। उसके शाही ठाठ थे। खाने के लिए कमल व नरगिस के फूलों के व्यंजन परोसे गए और जाने क्या-क्या दुर्लभ खाद्य थे, उल्लू को पता ही नहीं लगा। बाद में सौंफ-इलाइची की जगह मोती पेश किए गए। उल्लू दंग रह गया।
अब हंसराज उल्लू को महल में ले जाकर खिलाने-पिलाने लगा। रोज दावत उड़ती। उसे डर लगने लगा कि किसी दिन साधारण उल्लू समझकर हंसराज दोस्ती न तोड़ ले, इसलिए स्वयं को हंसराज की बराबरी का बनाए रखने के लिए उसने झूठ-मूठ कह दिया कि वह भी उल्लुओं का राजा उलूकराज है। झूठ कहने के बाद उल्लू को लगा कि उसका भी फर्ज बनता है कि हंसराज को अपने घर बुलाए।
एक दिन उल्लू ने दुर्ग के भीतर होनेवाली गतिविधियों को गौर से देखा और उसके दिमाग में एक युक्ति आई। उसने दुर्ग की बातों को खूब ध्यान से समझा। सैनिकों के कार्यक्रम नोट किए। फिर वह चला हंस के पास। जब वह झील पर पहुँचा, तब हंसराज कुछ हंसनियों के साथ जल में तैर रहा था। उल्लू को देखते ही हंस बोला, “मित्र, आप इस समय?”
उल्लू ने उत्तर दिया, “हाँ मित्र! मैं आपको आज अपना घर दिखाने व अपना मेहमान बनाने के लिए ले जाने आया हूँ। मैं कई बार आपका मेहमान बना हूँ। मुझे भी सेवा का मौका दें।”
हंस ने टालना चाहा, “मित्र, इतनी जल्दी क्या है, फिर कभी चलेंगे।”
उल्लू ने कहा, “आज तो आपको लिए बिना नहीं जाऊँगा।”
हंसराज को उल्लू के साथ जाना ही पड़ा।
पहाड़ की चोटी पर बने किले की ओर इशारा कर उल्लू उड़ते-उडते। बोला, “वह मेरा किला है।”
हंस बड़ा प्रभावित हुआ। वे दोनों जब उल्लू के आवास वाले पेड़ पर उतरे तो किले के सैनिकों की परेड शुरू होनेवाली थी। दो सैनिक बुर्ज पर बिगुल बजाने लगे। उल्लू दुर्ग के सैनिकों के दैनिक कार्यक्रम को याद कर चुका था, इसलिए ठीक समय पर हंसराज को ले आया था। उल्लू बोला, “देखो मित्र, आपके स्वागत में मेरे सैनिक बिगुल बजा रहे हैं। उसके बाद मेरी सेना परेड और सलामी देकर आपको सम्मानित करेगी।”
नित्य की तरह परेड हुई और झंडे को सलामी दी गई। हंस समझा सचमुच उसी के लिए यह सब हो रहा है। अतः हंस ने गद्गद होकर कहा, “धन्य हैं मित्र । आप तो एक शूरवीर राजा की भाँति राज कर रहे हैं।”
उल्लू ने हंसराज पर रोब डाला, “मैंने अपने सैनिकों को आदेश दिया है कि जब तक मेरे परम मित्र राजा हंसराज मेरे अतिथि हैं, तब तक इसी प्रकार रोज बिगुल बजे व सैनिकों की परेड निकले।”
उल्लू को पता था कि सैनिकों का यह रोज का काम है। दैनिक नियम है। हंस को उल्लू ने फल, अखरोट व बनफशा के फूल खिलाए। उनको वह पहले ही जमा कर चुका था। भोजन का महत्त्व नहीं रह गया। सैनिकों की परेड का जादू अपना काम कर चुका था। हंसराज के दिल में उल्लू मित्र के लिए बहुत सम्मान पैदा हो चुका था।
उधर सैनिक टुकड़ी को वहाँ से कूच करने के आदेश मिल चुके थे। दूसरे दिन सैनिक अपना सामान समेटकर जाने लगे तो हंस ने कहा, “मित्र,
देखो आपके सैनिक आपकी आज्ञा लिये बिना कहीं जा रहे हैं।”
उल्लू हड़बड़ाकर बोला, “किसी ने उन्हें गलत आदेश दिया होगा। मैं भी रोकता हूँ उन्हें।” ऐसा कह वह ‘हू-हू’ करने लगा।
सैनिकों ने उल्लू का घुघुआमा सुना ब अपशकुन समझकर जाना स्थगित कर दिया। दूसरे दिन फिर वही हुआ। सैनिक जाने लगे तो उल्लू घुघआया। सैनिकों के नायक ने क्रोधित होकर सैनिकों को मनहूस उल्लू को तीर मारने का आदेश दिया। एक सैनिक ने तीर छोड़ा। तीर उल्लू की बगल में बैठे हंस को लगा। वह तीर खाकर नीचे गिरा व फड़फड़ाकर मर गया। उल्लू उसकी लाश के पास शोकाकुल हो विलाप करने लगा, “हाय, मैंने अपनी झूठी शान के चक्कर में अपना परम मित्र खो दिया। धिक्कार है मुझे।”
उल्लू को आस-पास की खबर से बेसुध होकर रोते देखकर एक सियार उस पर झपटा और उसका काम तमाम कर दिया।
सीख : झूठी शान महँगी पड़ती है। कभी झूठी शान के चक्कर में न पड़ें।