एक पुस्तक की आत्मकथा
Ek Pustak ki Atmakatha
मैं पाँचवी कक्षा की हिंदी की पुस्तक हूँ। राष्ट्रभाषा हिंदी का सभी आदर करते। हैं परंतु वरुण मेरा बिलकुल ध्यान नहीं रखता। वरुण के माता-पिता ने मुझे । वर्ष के आरंभ में दुकान से लिया और सुंदर कवर चढ़ा वरुण को सौंप दिया।
यहीं से मेरी दुर्भाग्य की कथा शुरू हुई। वरुण जहाँ-तहाँ कलम से लकीरें खींच देता था। मेरी कविताओं के पन्नों पर बनी सुंदर तस्वीरों को वह अपने रंगों से भद्दा और भ्रष्ट कर देता था। उसने सभी महान व्यक्तियों की दाढ़ी-मूंछ बना उनका भी अपमान किया।
अब तो सहनशक्ति भी साथ छोड़ने लगी है। मेरी सुंदर काया वरुण के खाने में से निकले तेल से पीली पड़ गई है। कभी-कभी तो मेरे पन्ने दूसरी पुस्तकें के बीच दबकर मुड़ भी जाते हैं। कोई अपनी पुस्तक पर कैंची चला सकता है, ऐसा सोचकर तो मैं काँप ही उठती हूँ। छिन्न-भिन्न हिंदी की कक्षा के बाद भी मैं वरुण के टेबल पर रखी बस्ते में जाने की प्रतीक्षा करती हूँ। आते-जाते बच्चों के तेज़ हाथ कभी तो मुझे धूल भी चटा देते हैं। यदि ज्ञान का भंडार होने की यही सज़ा है तो मैं कभी पुस्तक नहीं बनना चाहूंगी। वह चाहे मेरा कितना भी अपमान कर ले परंतु परीक्षा के समय उसे मेरी आवश्यकता होगी। उस समय उसका साथ देकर मैं यह सिद्ध कर दूंगी कि मैं विद्यार्थियों की सच्ची साथिन हैं।