भारतीय संस्कृति
Bharatiya Sanskriti
विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का इतिहास साक्षी है. संसार में अनेक संस्कृतियाँ आई और सूख गई । नील नदी की घाटी पर गगन चुंबी पिरामिड का निर्माण करने वाली संस्कृति, अपने पितरों को ममी के रूप में पूजने वाली मिश्र की संस्कृति अब नहीं है। देवी-देवताओं और प्राकृतिक शक्तियों को पूजने वाली संस्कृति भी अब नहीं है। इस संस्कृति का रोम के लिए अब कोई महत्त्व नहीं है। लेकिन भारतीय संस्कृति अमर वर की तरह आज भी बढ़ रही है। यूनान, मिश्र, रोम जहाँ से मिट गए लेकिन भारत अपनी संस्कृति के बल पर आज भी फल-फूल रहा है।
वस्तुत: भारत की संस्कृति अध्यात्म पर आधारित है। इसलिए भारत को भूधर्म भूमि कहा जाता है। हिंदू दर्शन मौलिक है। यह अगोचर है. प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष से परे है, निर्गुण-निराकार एक तत्त्ववाद, अद्वैतवाद सिद्धांत की प्रतिष्ठा करने वाला है। यह हिंदू दर्शन की विशेषता है। साकार निराकार का पूर्ण समन्वय भारतीय दर्शन में मिलता है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में उत्तम व्यावहारिकता और पारमार्थिक श्रेष्ठता है। ये दोनों पूर्णता की सीमा तक है। प्रतिपल सांसारिक व्यवहार करते हुए भी हिन्दू द्वैत प्रपंच से उठकर अद्वैत स्वरूप निष्ठा-जीवन मुक्ति की अवस्था प्राप्त करने में समर्थ होता है। मनुष्य को मानव के विकास के उच्चतम शिखर तक पहुँचाकर जीवनमुक्ति की अवस्था में प्रतिष्ठित करा देना हिंदू संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है।
भारतीय संस्कृति में जीव के आवागमन के चक्र और जन्मांतर पर विश्वास है। इसी विश्वास के आधार पर कि परलोकवासी का जीवन पथ सरल रहे और उसे कष्ट न हो, इसके लिए नित्य नैमित्तिक श्राद्ध तर्पण आदि कर्मकाण्ड की सुव्यवस्था की गई भारतीय संस्कृति सर्व कल्याणकारिणी है, मंगलकारिणी है। यहाँ एक जाति, धर्म या राष्ट्र की मंगल कामना नहीं की है, अपितु ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की मानकर चराचर के जीव जगत् की मंगल कामना की गई है। यहाँ कहा गया है
सर्वेऽपि सुखिनः संतु सर्वे सन्तु निरामयाः।।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्॥
अनेकरूपता किसी राष्ट्र की जीवन्तता, सम्पन्नता तथा समृद्धि की द्योतक है। भारत विभेदों का समुद्र है, शायद इसलिए इसे उपमहादीप माना जाता है। यहाँ ढाई कोस पर बोली बदलती हैं। यहाँ विविध धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं। परिधान की विविधता में सतरंगिता के दर्शन होते हैं। रुचि की विविधता तथा जलवायु की आवश्यकता के अनुसार खान-पान में विभिन्नता है, पर ये विभिन्नताएँ भारतीय-संस्कृति की एकता की पोषक हैं। भाषाओं के भेद के बावजूद विचारों की एकरूपता कभी खंडित नहीं हई। समस्त साहित्य में एकात्मकता के दर्शन होते हैं। विभिन्न धार्मिक-उपासना पद्धतियों एवं मान्यताओं के बावजूद सब में एक भावना है, एक दर्शन है।
भारतीय संस्कति सष्टि के आदिकाल से आज तक अपने मूल रूप में है। यथासमय इसमें सधार अवश्य हुए हैं। इस पर इस्लाम और ईसाई संस्कृति के अत्याचार, अनाचार हुए हैं, विनाशक प्रहार हुए हैं, तब भी यह गर्व के साथ अपना मस्तक ऊँचा किए है। यह भारतीय संस्कृति की अपूर्व विशेषता है कि संपन्न संस्कृति के कारण मेरा देश जगद्गुरू रहा है और जगद्गुरू रहेगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीय संस्कृति को सराहना करते हुए कहा है-
अपनी संस्कृति का अभिमान करो सदा हिन्दू संतान सब आदर्शों की वह खान, नर–रल करेगी दाना.