धर्म का व्यावसायिकरण
Dharam Ka Vyavasayikaran
धर्म के बारे में राष्टकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है कि धर्म किसी स्थान का वाचक नहीं है अपितु यह व्यक्ति का एक गण है। धर्म को व्यवसाय से जोड़ा जा सकता है लेकिन इस पक्ष में कि व्यापारो कर्त्तव्यनिष्ठा, सत्यता, ईमानदारी के साथ अपना व्यवसाय करें। लेकिन संत संसार से विरक्त रहता है। उसे व्यवसाय की क्या आवश्यकता है? वह समाज को सद्धर्म पर चलने की शिक्षा देता है। हमारे प्राचीन ऋषि-संत राजाओं को सद्ध म पर चलने की शिक्षा देते रहे हैं। उन्होंने कभी धर्म को व्यवासाय नहीं बनने दिया और समाज में भी अगर किसी ने बनाने की कोशिश की तो बनने नहीं दिया। लेकिन आज के कथित संत-महात्माओं ने धर्म का व्यवसायीकरण कर लिया है। यह कथावाचकों की रोजी-रोटी का साधन बन गया है। कथित सन्त बड़े-बड़े पंडाल लगवाकर संगीत का आश्रय लेकर प्रवचन करते हैं। इसके अतिरिक्त दरदर्शन पर इसी तरह के प्रायोजित कार्यक्रम करवाते हैं। इनमें से अधिकांश संत जनता को आस्था के साथ खिलवाड़ करते हैं। उन्हें तरह-तरह से ठगते हैं। अविश्सनीय कथन से लोगों को अपने जाल में फंसाते हैं। ऐसे संतों का अभाव नहीं है जो महीने में अठ-फरेब से करोड़ों अर्जित करते हैं और तब भी आयकर से बाहर रहते हैं। सुविधाभोगी ये संत धर्म के नाम पर सीधी-साधी, भोली-भाली लड़कियों व महिलाओं को अपने चंगुल में फंसाते हैं और उनके साथ व्यभिचार करते हैं। इस तरह के कथित संतों के कई मामले उजागर हुए हैं। कई इस तरह के आरोपों में कई सालों से कारावास की सजा काट रहे हैं।