जैसा करै वैसा भरै
Jaisa Kare Vaisa Bhare
एक पतोहू अपनी बूढ़ी सास को टूटी कठौती में खाना दिया करती थी। संयोग से एक दिन सास के हाथ से कठौती छूट गई और फर्श पर गिरकर दो टूक हो गई। बुढ़िया का बेटा उसी समय कहीं बाहर से घर में आया था। उसने कठौती के टूटने पर अपनी मां को एक जोर की डांट बताई। बुढिया इस मामूली से नुक्सान पर बेटे से झिड़की की उम्मीद न करती थी। बेचारी रो पडी। बह दोरही थी कि सास को आज अच्छी डांट मिली। पहले कभी ऐसा अवसर आया था कि बेटा अपनी मां को डांटता। अक्सर तो उसका पति अपनी मां का ही पक्ष लिया करता था। आज पति के इस नए रुख पर उसे बडा हर्ष हुआ कि मैं अकेली ही सास को बुरा नहीं समझती हूं, बेटा भी मां की हरकतों से नाराज है। मेरी सास है ही खोटी, मैं तो पराई ‘जाई’ हूं. पर बेटा तो सास का अपना ही ‘जाया’ है।
पर जब मां ने बेटे से डांटने की वजह पूछी तो उसने आंखें भरकर कहा, “मां, क्या तुम समझती हो कि मैंने तुम्हें उस टूटी कठौती के फूटने पर डांटा है? तब तो मैं तुम्हारी पतोहू से भी गया-बीता हो गया। डांटने का असली कारण तो था कि तुमने कठौती नहीं, एक परंपरा तोड़ दी। वह कठौती घर में कम-से-कम तब तक तो रहनी ही चाहिए थी जब तक कि मेरी पतोहू घर में आ जाती, जिससे वह देख लेती कि सास को क्या और कैसे बर्तन में, कैसी तुच्छता से, खाना दिया जाता है। और तब वह भी अपनी सास से इसी तरह बरतती। उस समय मेरी स्त्री को सीख मिलती कि “जैसा करै वैसा भरै।”
उसकी स्त्री सारी बातें ध्यान से सुन रही थी। आखिरी कहावत सुनकर उसकी आंखें खुल गईं। अपना दुःखपूर्ण भविष्य उसकी आंखों के सामने फिर गया। उस दिन से उसने सास के प्रति अपना सारा व्यवहार सुधारकर ठीक कर लिया।