चोर चोरी से गया तो क्या हेरा फेरी से भी गया?
Chor Chori Se Gya To Khay Here-Pheri Se Bhi Gya
किसी गांव में एक पक्का चोर रहता था। पर चोरी वह प्रायः धनियों के घर करता था, गरीब के घर चोरी करने भरसक न जाता था। शायद इसलिए भी कि गरीब के घर मिलता भी क्या? लेकिन एक बार जब हाथ बिलकुल खाली होने से भूखों मरने की नौबत आ गई तो “मरता क्या न करता।” वह उसी गांव के बाहर आधी रात को एक साधु की कुटिया में जा घुसा। यह वह जानता था कि वह साधु बड़ा त्यागी है, पास में कुछ रखता-रखाता नहीं है, फिर भी सोचा, “चलो, जोई हाथ सोई साथ।” खाने-पीने को भी कुछ हाथ लग जायगा तो एक-दो दिन गुजर हो जायगा। यों कहीं से मांग-चांगकर भी वह एकदो दिन गुजर कर सकता था, पर चोर के लिए मांगना कठिन होता है-चोरी करना आसान।
चोर ने जब साधु की कुटिया में प्रवेश किया, रात के करीब बारह बजे थे। कुटिया के भीतर जाने में उसे कोई कठिनाई न हई। फस की कटिया में सेंध लगाने की तो जरूरत ही क्या होती! दरवाजा बहुत मामूली, दीवार कच्ची, बहुत नीची-बहुत थोड़ी मेहनत से आदमी फांद जा सकता था। लेकिन चोर को यह क्या मालूम कि साधु उस समय तक जागता होगा? साधु का त्यागी होना उसने सुन रखा था, पर उसके संयमी होने की खूबर उसे न थी। दरअसल तो उस बेचारे को संयम और असंयम शब्दों का पता ही न था। उसके लिए तो “सब धन बाइस पसेरी” थे।
ठीक उसी समय साधु ध्यान से उठकर लघुशंका के निमित्त अपनी कटिया के बाहर आया था। चोर से उसका सामना हो गया। साधु उसे पहचानता था, पहले कई बार देख चुका था। पर उसे यह इल्म न था कि वह चोर है। और “चोर के सिर में सींग नहीं होते” कि वह सूरत से पहचाना जा सके। दूसरे, कौन चोर है, कौन साहु, इन प्रपंचों से साधु को मतलब भी क्या? इस व्यक्ति को ऐसे वक्त यहां देखकर साधु को ताज्जुब हुआ। इस आधी रात को इसे यहां आने की क्या आवश्यकता हुई? इतना उसे भास गया कि यह जरूरतमंद है। पर जरूरत क्या है, इसका अंदाज न हो सका। साधु ने बड़े प्रेम से पूछा, “कहो बच्चा आधी रात को कैसे कष्ट किया? मुझसे कुछ काम है?”
चोर बोला, “महाराज, मैं दिनभर का भूखा हूं।”
साधु ने कहा, “आओ, बैठो, मेरे पास दिन के खाने से बचे कुछ फलफूल हैं। बहुत तो नहीं है, लेकिन तुम्हारा काम कुछ चल जायगा। मैंने धूनी में शाम को कुछ शकरकंदिया डाल दी थीं, वे भुन गई होंगी, निकाले देता हूं। तुम्हारा गुजर हो जायगा। शाम को आ गये होते तो जो था हम-तुम मिलकर खा लेते। लेकिन पेट का क्या है बच्चा, अगर मन में हमारे संतोष हो तो जितना मिले उसमें ही मनुष्य खुश रह सकता है। “यथा लाभ संतोष” यही तो है।
साधु ने दीपक जलाया, उसे आसन दिया, पानी दिया और जो सामान पास बजट था. एक पत्ते में उसके सामने धर दिया और पास बैठकर उसे इस तरह खिलाया जैसे कोई मां अपने बच्चे को खिलाती है। चोर साधु के सव्यवहार से निहाल हो गया। सोचने लगा, “एक मैं हं, एक यह है! मैं चोरी करने आया और यह इतनी खातिर से पेश आया। मनुष्य मैं भी हैं और यह भी. लेकिन सच कहा है ‘आदमी-आदमी अन्तर, कोई हीरा कोई कंकर।’ मैं तो इसके सामने कंकर से भी बदतर हूं।”
मनुष्यों में बुरी के साथ भली वृत्तियां भी रहती हैं, जो समय पाकर जग जाती है। जैसे अच्छा खाद-पानी पाकर बीज पनप जाता है, वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सद्वृत्तियां लहलहा उठती है। थोड़ी देर के लिए चोर के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गये। अनजाने उसे सत्संग का लाभ मिला। कहा है
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी हू पुनि आध।
भीखा संगत साधु की, कटें कोटि अपराध॥
आध घंटे के साधु-समागम से थोड़ी देर के लिए ही क्यों न हो, सचमुच उसके समस्त अपराध कट गये। साधु के सामने अपना अपराध कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा। एक बार खयाल हुआ कि यह मालूम हो जाने पर कि मैं चोरी की नीयत से आया था, साधु की निगाह में मेरी क्या इज्जत रह जायगी? क्या सोचेंगे यह महात्मा, कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ फकीर के यहां चोरी करने आया? लेकिन फिर उसने सोचा, साधु मन में चाहे जो समझे, लेकिन मुझे तो इनके सामने अपना अपराध कबूल करके अपने मन को हल्का करना ही चाहिए और जो इतना प्रेमी और महान् पुरुष है, वह क्या मेरा अपराध क्षमा न करेगा?
उसके खा-पी चुकने पर साधु ने कहा, “अब इस रात को तुम कहां वापस जाओगे? मेरे पास एक चटाई है, लो और आराम से यहीं सो रहो। सुबह चले जाना।”
नेकी की मार से चोर दबा जा रहा था। वह साधु के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने लगा। साधु समझ न सका कि यह क्या हुआ? यह दुःखी जीव है, इतना तो समझ में आया, लेकिन इस समय इसे क्या दु:ख उमड़ा, यह वह अनुमान न कर सका। साधु ने प्रेमपूर्वक उसे पैरों पर से उठाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते-फेरते पूछा, “बेटा, क्या हुआ?”
रोते-रोते चोर का गला रुंध गया था। उसने बड़ी कठिनाई से अपने को संभालकर कहा, “महाराज, मैं बड़ा अपराधी जीव हूं।”
साधु बोला, “और कौन नहीं है? ईश्वर के सामने हम सभी अपराधी हैं, तू अकेला ही क्या? और भगवान् तो सबके अपराध क्षमा करनेवाले हैं। उसकी शरण में पहुंच जाने पर वह हमारे बडे-से-बडे अपराध क्षमा कर देता है। बस, उसकी शरण ले, तेरे सब अपराध धुल जायंगे।”
चोर बोला, “मेरे जितने बड़े पापी का निस्तार नहीं होगा, महाराज!”
साधु ने कहा, “बड़ा और छोटा क्या पगले, कोई बाहर चोर है, कोई भीतर चोर है।”
“नहीं महाराज, मैंने बड़ी-बडी चोरियां की हैं, सिर्फ आज का ही दिन है जब मैं भूख से व्याकुल होकर आपके यहां चोरी करने आया था, लेकिन आपके व्यवहार ने तो मेरा कायापलट ही कर दिया। बस, आज आपके सामने मैं कसम खाता हूं कि आगे कभी चोरी न करूंगा. किसी जीव को न सताऊंगा। आप अपनी शरण में लेकर मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।”
साधु ने ‘तथास्तु’ कहा, और एक बार फिर प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेर दिया। प्रेम के जादू ने उतने ही क्षणों में चोर को साधु बना दिया।
उस दिन से वह साधु की सेवा में रहने लगा। उसका नाम बाघसिंह था, साधु ने बदलकर ‘रामदास’ कर दिया। साधु की कटिया के आसपास कुछ जमीन थी, जिसमें कई प्रकार के फल लगे थे। शकरकन्दी की थोड़ी खेती थी। रामदास उन फलों की और खेत की देखभाल में लगा रहता। वह कभी साधु की सेवा की बात करता तो साधु कहता, “इन फलों की सेवा से ही तझे मेरी सेवा का फल मिल जायगा। मैं ये फल खाता हूं, और तू भी खाता है। हम जिसका खाते हैं उसकी सेवा करना हमारा पहला धर्म है।”
रामदास का जीवन बड़े आनन्द से कटने लगा। कुछ दिनों बाद साधु को एक भंडारे का निमन्त्रण मिला। रामदास भी साथ गया। वहां कुछ अच्छे, कुछ बुरे, कई तरह के साधु जमा थे। उनमें कुछ सच्चे साधु थे, कुछ गंजेड़ी-भंगेड़ी भी। उन नशेवाले साधुओं के साथ दो-चार दिन रहने से रामदास के पुराने संस्कार कुछ चेत गये। जब सब साधु भंडारा खाने बैठते तो रामदास उनकी खड़ाउओं को इधर-से-उधर कर देता। इसकी जगह उसकी लाकर रख देता, उसकी जगह इसकी। खाकर उठने पर साधु बहुत हैरान होते। किसी को भी अपनी खडाऊं जगह पर न मिलती। खड़ाऊं की जगह खड़ाऊं मिलती, लेकिन वह होती थी किसी दूसरे की। बड़ा बावेला मचता। सिर्फ रामदास के गुरु की खड़ाऊं जहांकी-तहां रहती।
साधु ने रामदास से कहा, “बच्चा रामदास, यह खोटा काम कौन करता है?”
रामदास बोला, “महाराज, सच कहूं? यह काम आपके इस शिष्य का ही है।”
साधु ने पूछा, “तू ऐसा क्यों करता है?”
वह बोला, “महाराज, मुझे अपने पुराने स्वभाव के अनुसार किसी की चीज को इधर-से-उधर करने में अब भी मजा आता है। पहले तो उठाकर अपने घर ले जाया करता था, वह स्वभाव तो आपके पुण्य-प्रताप से जाता रहा, लेकिन उठाने का स्वभाव अब भी बाकी है। इधर से उठाकर उधर करने को मेरा मन मचलता रहता है। आपकी कृपा होगी तो आगे-पीछे यह भी बदल जायगा।”
साधु मुसकराया और एक बार उसके सिर पर प्रेम से हाथ फेरकर बोला, “देख बच्चा, इसमें दूसरों को कितना कष्ट होता है। मनुष्य को चाहिए कि अपने से जहां तक बन सके, दसरे का भला करे, कम-से-कम किसी को कष्ट तो न पहुंचाए।”
रामदास ने कहा, “महाराज. इस दास का आज यह आखिरी अपराध था, आगे कभी ऐसा न होगा।”