Hindi Essay on “Rajendra Babu – Sadgi ki Pratimurti”, “राजेन्द्र बाबू – सादगी की प्रतिमूर्ति” Complete Paragraph, Speech for Students.

राजेन्द्र बाबू – सादगी की प्रतिमूर्ति

Rajendra Babu – Sadgi ki Pratimurti

राजेन्द्र बाबू की मुखाकृति ही नहीं, उनके शरीर के संपूर्ण गठन में एक सामान्य भारतीय जन की आकृति और गठन की छाया थी, अत: उन्हें देखने वाले को कोई न कोई आकृति या व्यक्ति स्मरण हो आता था और वह अनुभव करने लगता था कि इस प्रकार के व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है। आकृति तथा वेशभूषा के समान ही वे अपने प्रभाव और रहन-सहन में सामान्य भारतीय या भारतीय कार का ही प्रतिनिधित्व करते थे। प्रतिभा और बुद्धि की विशिष्टता के साथ-साथ उन्हें जो गम्भीर संवेदना प्राप्त हुई थी, वही उनकी सामान्यात को गरिमा प्रदान करती थी। व्यापकता ही सामान्यता की शपथ है, परन्तु व्यापकता संवेदना की गहराई में स्थिति रखती है। भाई जवाहरलाल जी की अस्तव्यस्तता भी व्यवस्था से निर्मित होती थी, किन्तु राजेन्द्र बाबू की सारी व्यवस्था ही अस्तव्यस्तता को पर्याय थी। दूसरे यदि जवाहरलाल जी की अस्तव्यस्तता देख ले तो उन्हें बुरा नहीं लगता था परन्तु अस्तव्यस्तता के प्रकट होने पर राजेन्द्र बाबू भूल कत वाले बालक के समान संकुचित हो जाते थे। एक दिन यदि दोनों पैरों में दो भिन्न रंग के मोजे पहने उन्हें किसी ने देख लिया तो उनका संकुचित ठठना अनिवार्य था। परन्तु दूसरे दिन वे जब स्वयं सावधानी से रंग का मिलान करके पहनते तो पहले से भी अधिक अनमेल रंगों के पहन ली। 

उनकी वेशभूषा की अस्तव्यस्तता के साथ उनके निजी सचिव और सहचर भाई चक्रधर जी का स्मरण अनायास हो आता है। मोजों में से पांचों उंगलियों बाहर निकलने लगतीं, जब जूते के तले पैर के गवाक्ष बनने लगते, जब धोती-करते कोट आदि का खरा मूल ताने-बाने में बदलने लगता, तब चक्रधर इस पुरातन सज्जा को अपने लिए सहेज लेते।

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