आजादी के लिए संघर्ष
Azadi Ke Liye Sangharsh
दो दिन अपनी अर्थहीन व्यस्तताओं के बीच यह सब कछ भला रहा। मगर दो दिन बाद उस शाम जैसे ही घर लौटा सभी ने मुझे पकड़ लिया। पत्नी लगभग रुंआसी हो चली थी। गोली, यह पाप है। अब यह देखा नहीं जाता। अभी भी वे कांच की दीवार पर सर पटक रहे हैं। नर-चिड़िया की चोंच भी जख्मी हो चुकी है। कुछ करना होगा, अभी और इसी वक्त। चिंकी ने मेरे दोनों हाथ थाम लिए थे और मचल रही थी, बाबाजी, छुड़ाइये न —– चिडिया को बाहर लाइए प्लीज, बाबाजी । मेरे चारों ओर मेरा परिवार जमा था। पत्नी, बच्चे , बहुएँ, पोते-पोतियाँ-सभी एक ही बात दुहरा रहे थे। इसे बचाइए।
मैं अपनी खिड़की से झांकता हूँ। सामने वही बंद खिड़की। खिड़की के अंदर थकी-हारी, मूखी-प्यासी, सहमी हुई चिडिया पर रह-रहकर कांच पर चोंच मार रही थी। पास में छोटा-सा बच्चा सहमा सहमा, टुकुर-टुकुर देखता सा। कभी चिड़िया बच्चे को चॉन से अपनी चोंच मिलाकर ची-चीं करती हुई उसे धीरज बंधाने की कोशिश करती फिर काँच पर प्रहार करने लगती। बाहर नर चिड़िया घबराया हुआ, लगभग परास्त, काँच पर लगातार प्रहार कर रहा था।